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यथार्थवाद और जीवन

यथार्थवाद और जीवन

वास्तविक होना स्वाभाविक और प्रशंसनीय है, परंतु जरूरत से अधिक वास्तविकता अक्सर अकेलेपन और असंतोष की जड़ बन जाती है। जीवन का सार केवल सच्चाई तक सीमित नहीं, बल्कि उसमें दया, सहानुभूति और समझदारी का भी समावेश होता है। जब मुझे नई सोच और नए विचारों की आवश्यकता होती है, तो मैं उन लोगों की खोज करता हूँ जो मेरी आलोचना करें, जो मेरी बातों पर उंगली उठाएँ। क्योंकि केवल आलोचना के द्वारा ही हम अपनी सीमाओं को पहचान पाते हैं और आने वाली पीढ़ी को वह दे पाते हैं जो उनके लिए वास्तव में आवश्यक है, जो उनके सफल जीवन का आधार बने। दया और करुणा, बिना स्वार्थ के समय पर साथ खड़े रहना यही वे मूल्य हैं जो जीवन को सार्थक और सफल बनाते हैं। कठोरता और जिद से हम उन महत्वपूर्ण पलों से दूर हो जाते हैं, जिनमें हमारी उपस्थिति नितांत आवश्यक होती है। परिणामस्वरूप, हम वह आंतरिक आनंद खो देते हैं, जिसे हम अपने भीतर महसूस कर सकते थे। हमारे विचारों का प्रभाव सामने वाले की भावनाओं पर भी पड़ता है। भले ही हमारा इरादा शुद्ध हो, पर हमें यह समझना आवश्यक है कि हमारे शब्द किस प्रकार उसके मन पर प्रभाव डालते हैं। कल्पना करें, कोई आपको एक चुटकुला सुनाता है जिसे आपने पहले सुना हो। यदि आप तुरंत कह दें, “मैंने यह पहले ही सुन लिया है,” तो यह सुनाने वाले का दिल तो दुखाता ही है, साथ ही उसकी हिम्मत भी तोड़ देता है कि वह फिर से कुछ कह सके। ऐसे में आपकी सच्चाई उसकी भावनाओं पर भारी पड़ जाती है, और वह आनंद जो आपको अगले चुटकुले से मिलने वाला था, वह भी खो जाता है। संभव है कि अगला चुटकुला आप सुन ही न पाए, और वह इतना अप्रतिम हो कि आपको भी उसमें अपार आनंद मिलता।

इसलिए, जीवन में संतुलन बनाना अत्यंत आवश्यक है जहाँ हम सच्चाई के साथ संवेदना को भी अपनाएँ। तभी हम न केवल स्वयं सफल हो पाएंगे, बल्कि दूसरों के जीवन में भी खुशियाँ और समृद्धि ला पाएंगे। एक ऐसा मित्र है उमेश, जिसका व्यक्तित्व एकदम यथार्थवादी और ठोस है। वह जीवन को इतनी स्पष्टता और संतुलन से जीता है कि उसके सामने बोलने से पहले मुझे सौ बार सोचने की जरूरत महसूस होती है। ऐसा नहीं कि वह गलत है, बल्कि वह इतना सच्चा है कि उसकी सच्चाई कई बार तीर की तरह चुभती है। अक्सर ऐसा हुआ कि उसने कुछ ऐसा कह दिया जो मुझे भीतर तक चोट पहुँचा गया। मुझे लगा मेरी बेइज्जती हुई, पर मैं कभी कुछ कह नहीं पाया। शायद उसके लिए वह एक छोटी-सी बात थी, पर मेरी भावनाओं ने उसे एक गहरी चोट की तरह महसूस किया। उसकी व्यवहारिकता और संतुलन उसे आज के समय का आदर्श व्यक्ति बनाते हैं न ज़्यादा बोलना, न ज़्यादा चुप रहना, केवल आवश्यक बातें कहना, अपने काम से काम रखना, और अपने आत्म-सम्मान का पूर्ण ध्यान रखते हुए जीवन को पूरी निष्ठा से जीना। मैं मानता हूँ कि यही आज के समय की आवश्यकता है एक व्यावसायिक और भावनात्मक रूप से संतुलित दृष्टिकोण। लेकिन जब यह यथार्थता इतनी गहरी हो जाए कि इंसान अपने अधिकार के लिए भी बोलने से डरने लगे, तब यह संतुलन बोझ बन जाता है। सिर्फ इस डर से कि ‘अगर मेरी बात काट दी गई, तो मेरा मान-सम्मान चला जाएगा,’ अगर हम अपनी बात कहना ही छोड़ दें, तो क्या यह सही है? हर इंसान को अपनी बात रखनी चाहिए। हाँ या ना, परिणाम जो भी हो, प्रयास ज़रूरी है। अगर हम पहले ही परिणाम से डरकर रुक जाएँ, तो फिर कर्म कैसा? सफलता और असफलता जीवन के अंग हैं, लेकिन कोशिश न करना सबसे बड़ी हार है।

यहाँ सवाल यह है कि क्या यथार्थवाद और सच्चाई का यह कठोर रूप, जो दूसरों को चोट पहुँचा सकता है, वास्तव में सही है? जीवन में केवल कठोर यथार्थ का पालन करना क्या सही अर्थ में जीवन जीना है? नहीं। दूसरा उदाहरण लें, प्रसिद्ध फुटबॉलर महेंद्र सिंह धोनी का। मैदान पर उनकी शांत और संयमित छवि से पता चलता है कि वे कितनी सूझबूझ और संतुलन के साथ खेलते हैं। वे भावनाओं को संभालकर, न केवल अपनी टीम को प्रेरित करते हैं, बल्कि तनाव के समय भी धैर्य बनाए रखते हैं। यही जीवन का संतुलन है जहाँ यथार्थ और संवेदना का मेल हो। परंतु जब यथार्थ इतना कठोर हो जाए कि व्यक्ति अपने अधिकारों के लिए भी बोलने से डरने लगे, तब यह संतुलन बोझ बन जाता है। जैसे कि कोई व्यक्ति अपनी राय व्यक्त करने से इसलिए बचता है क्योंकि उसे डर है कि 'अगर मेरी बात काट दी गई तो मेरा सम्मान कम हो जाएगा।' क्या यह ठीक है? हमें अपनी आवाज़ उठानी चाहिए, चाहे परिणाम कुछ भी हो। प्रयास न करना, कर्म से दूरी बनाना, जीवन की सबसे बड़ी हार है। इसी संदर्भ में, महान शिक्षाविद डॉ. ए.पी.जे. Abdul Kalam की एक बात याद आती है "Dream, dream, dream. Dreams transform into thoughts and thoughts result in action." इसका अर्थ है कि सोच को कर्म में बदलना ही जीवन की सार्थकता है। लेकिन केवल यथार्थ और सफलता पर टिके रहना जीवन की पूर्णता नहीं है। हिंदी सिनेमा की अभिनेत्री रेखा का उदाहरण लें। उनके पास प्रसिद्धि, धन और सम्मान था, पर जीवन की गहराई में एक तरह का अकेलापन भी था। उनके अनुभव दर्शाते हैं कि जब रिश्ते टूटते हैं, जुड़ाव कम हो जाता है, तो व्यक्ति अकेला महसूस करता है, चाहे उसके पास कितना भी धन-संपदा हो। यह अकेलापन आज की सबसे बड़ी भावनात्मक बीमारी है। इसका मुख्य कारण है जब हम केवल तर्क, यथार्थ और सफलता के पीछे भागते हैं, भावनाओं को दरकिनार कर देते हैं। पर जीवन में वही रंग है जो भावनाओं से आता है दया, प्रेम, क्षमा, करुणा। एक और उदाहरण देते हैं महात्मा गांधी। उनकी सादगी, करुणा और प्रेम ने उन्हें केवल एक नेता ही नहीं, बल्कि एक मानवता के प्रेरक बनाया। उनकी यथार्थवादी सोच और कोमल हृदय का संगम ही उनके जीवन की सबसे बड़ी ताकत थी। इसलिए, जीवन में संतुलन बनाए रखें। तुम जैसे हो, वैसे रहो, लेकिन कभी-कभी थोड़ी कोमलता और संवेदनशीलता भी ज़रूरी होती है। क्योंकि रिश्तों को निभाने के लिए केवल यथार्थ पर्याप्त नहीं, भावनाएँ भी चाहिए। जीवन में वही पूर्णता है जहाँ यथार्थ और भावनाएँ मिलकर हमारी आत्मा को संतुष्ट करती हैं।

 

उमेश का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली है कि कई बार मैं सोच में पड़ जाता हूँ क्या कामयाबी केवल यही है? वह जो कहता है, लोग सुनते हैं और मानते हैं। उसकी बातों में इतनी गंभीरता और ठोसपन होता है कि उसके सामने कोई बहस करने की हिम्मत नहीं करता। लेकिन क्या यही जीवन की सम्पूर्णता है? क्या सिर्फ संतुलन और सफलता से इंसान का जीवन पूरा हो जाता है? इस संदर्भ में मुझे हिंदी सिनेमा की महान अभिनेता और अभिनेत्री के उदाहरण ले सकते है जिनके पास वह सब कुछ था, जिसकी हर कोई कल्पना कर सकता है शोहरत, पैसा, नाम, और सम्मान। उन्होंने अपने करियर में अविश्वसनीय ऊँचाइयाँ हासिल कीं, लेकिन सवाल यह है कि क्या उनके अंदर पूर्णता और संतुष्टि थी? मीडिया और जीवन की वास्तविकता दोनों यह संकेत देते हैं कि भीतर से वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थीं। उनके जीवन में वह अपनापन और जुड़ाव, जो हर इंसान को अंदर से भर देता है, कहीं कम पड़ गया था। समय के साथ रिश्ते बदल जाते हैं। भाई-बहन, दोस्त, माता-पिता सभी अपनी-अपनी दुनिया में खो जाते हैं। व्यस्तता, दूरी और गलतफहमियाँ रिश्तों को कमजोर कर देती हैं। और इस टूटते रिश्तों के बीच इंसान के अंदर एक गहरा खालीपन और अकेलापन जन्म लेता है। आपने शायद कई बार सुना होगा कि कुछ महान कलाकार इतने अकेलेपन में दुनिया से चले गए कि लोगों को उनकी मृत्यु का पता तब चला, जब उनकी देह सड़ चुकी थी। यह केवल एक दुखद घटना नहीं, बल्कि अकेलापन एक गंभीर भावनात्मक बीमारी है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आज के समय में हम जीवन में केवल यथार्थवादी बन जाते हैं, भावनाओं और संवेदनाओं को दरकिनार कर देते हैं। जब हम केवल तर्क, यथार्थ और सफलता की दौड़ में लगे रहते हैं, तो हम अपनी भावनात्मक दुनिया को नकार देते हैं। परन्तु जीवन में थोड़ी भावुकता, थोड़ी दया, कभी गुस्सा, कभी प्यार, रूठना-मनाना, निस्वार्थ सेवा ये सब भावनाएँ हमें इंसान बनाती हैं। यही भावनाएँ हमारे जीवन को गहराई, अर्थ और उद्देश्य प्रदान करती हैं। महात्मा गांधी का जीवन इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। वे एक यथार्थवादी थे, लेकिन उनमें करुणा और दया की भी गहरी संवेदना थी। उन्होंने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में नेतृत्व किया, बल्कि मानवता के प्रति अपने प्रेम और संवेदनशीलता से लोगों के दिलों को भी जीता। इसलिए, हम जब भी अपने जीवन को देखें, तो केवल बाहरी सफलता और संतुलन को ही न देखें, बल्कि अपने भीतर की भावनाओं को भी पहचानें और पोषित करें। क्योंकि जीवन की पूर्णता केवल बुद्धि या यथार्थ में नहीं, बल्कि दिल और आत्मा के मिलन में है। तो याद रखें  संतुलन जरूरी है, पर भावनाओं के बिना यथार्थ एक कठोर सत्य मात्र है, जो इंसान को अकेला कर देता है। जीवन में कोमलता, संवेदनशीलता, और प्रेम की जरूरत भी उतनी ही है जितनी कि दृढ़ता और साहस की। यही जीवन की सच्ची सफलता है।

 

मौलिक व अप्रकाशित रचना 

फूल सिंह 

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