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ग़ज़ल नूर की - ज़ुल्म सहना छोड़ कर इन्कार करना सीख ले

ज़ुल्म सहना छोड़ कर इन्कार करना सीख ले
है अगर ज़िन्दा पलटकर वार करना सीख ले.   
.
एक नुस्ख़ा जो घटा देता है हर दुःख की मियाद
सच है जैसा वैसा ही स्वीकार करना सीख ले.
.
मज़हबों के खेल में होगी ये दुनिया और ख़राब 
अपने रब का दिल ही में दीदार करना सीख से.
.
तन है इक शापित अहिल्या चेतना के मार्ग पर
राम सी ठोकर लगा.. उद्धार करना सीख ले.
.
नफ़रतों की बलि न चढ़ जाए तेरी मासूमियत
मान इन्सानों को इन्सां प्यार करना सीख ले.
.
लग न जाए दाग़ इस दुनिया का तेरी रूह पर
बिन छुए इसको ये दरिया पार करना सीख ले. 
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 8, 2021 at 6:17am

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन समझाइस वाली बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 7, 2021 at 11:02pm

धन्यवाद आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब ..
आप को इन दो मिसरों में लय बाधित लग रही है तो कुछ ऐसा उपाय कीजिये पढने में कि लय बाधित न लगे..
आप शायद और को अबतक उर पढ़ना नहीं सीखें हैं और यकीनन बलि को बली पढ़ रहे हैं..
आशा करता हूँ कि आप अधिक से अधिक ग़ज़लें पढ़ेंगे और किस तरह पढ़ा जाता है वह आर्ट सीखेंगे..
वैसे आपके लिए इससे पहले वाली ग़जल आसान बहर में कही है..उसे भी देख लें.. पढने की प्रक्रिया आसान हो जाएगी ..
.
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 7, 2021 at 10:57pm

धन्यवाद आ. दयाराम मेठानी साहब 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on November 7, 2021 at 10:36pm

आदरणीय निलेश जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार करें। 

"और ख़राब होगी ये दुनिया मज़हबों के खेल में" और 

"नफ़रतों की बलि न चढ़ जाए तेरी मासूमियत" मिसरों में लय बाधित लगी मुझे। 

Comment by Dayaram Methani on November 7, 2021 at 9:18pm

बहुत ही लाजवाब एवं दमदार ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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