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ग़जलः
2122 2122 2122 212

मुन्तज़िर थे हम मगर मिलना मयस्सर ना हुआ
वस्ल तो तय थी नसीबा पर हमारा ना हुआ

चाँद रातों में तड़पता वस्ल की खातिर कोई
वो मुहर लब पर हुई कब वो नज़ारा ना हुआ

चाँदी की दीवारें आड़े आईं आशिक प्यार के
मुफलिसों को प्यार का या रब सहारा ना हुआ

जो पहुँचना था हमें अफलाक की ऊँचाइयों,
रह गये बैठे जमीं कोई हमारा ना हुआ ।

टूटती साँसे रही मकतल बना अस्पताल अब,
ज़िन्दगी तेरा भरोसा मुस्तकिल सा ना हुआ ।

कब ज़रूरत है बहस की कौन सी पैथी अच्छी,
तर्क ए तअल्लुक आज कोई तो गँवारा ना हुआ

आजा महबूब मिरे इकरार तो कर प्यार का,
रार मत कर, बिन तेरे तो वो गुजारा ना हुआ ।

तनक़ीद अच्छी न वो होती प्यार- मुहब्बत के लिय़े,
है लबों दम प्यार वो, तेरा सहारा ना हुआ ।

मौलिक व अप्रकाशित

प्रोफ. चेतन प्रकाश 'चेतन'

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Comment by Chetan Prakash on June 4, 2021 at 4:02pm

आदाब,  जनाब, Nilesh Shevgaonkar!  मधुर स्मृति ! आपने सही  कहा, मान्यवर, किन्तु  कई शायर इस तरह भी  लेते हैं ! साभार, बंधुवर!

Comment by Chetan Prakash on June 4, 2021 at 3:51pm

भाई लक्ष्मण सिंह  मुसाफिर  आदाब,  आप ने सही कहा असल में सारी ग़ज़ल  लाइव  अंकित  की गयी थी सो,मतले के  ऊला  मे  शाब्दिक  क्रम बिगड़ गया !दरअसल  ऊला, " मुन्तजिर थे पर मयस्सर  हमको मिलना ना हुआ" ही था ! आपने ग़ज़ल तक पहुंचने की ज़हमत की, इस के लिए आपका  आभारी हूँ ! सधन्यवाद  !

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 3, 2021 at 4:19pm

आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन । गजल के प्रयास के लिए हार्दिक बधाई।
गजल में आपने काफिया क्या लिया यह समझ नहीं आया। स्पष्ट करें।
यदि आ लिया है तो इस प्रकार करें

मुन्तज़िर थे पर मयस्सर हमको मिलना न हुआ
वस्ल तो तय थी नसीबा पर हमारा न हुआ

यदि आरा लिया है तो शेरों को बदलने का प्रयास करें। इस संदर्भ में भाई नीलेश जी कह ही चुके हैं । सादर...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2021 at 12:37pm

आ. चेतन प्रकाश जी,

मतले में क़वाफ़ी ठीक नहीं है .. 
ग़ज़ल में ना को न की तरह १ मात्रा पर बाँधा जाता है ..देखिएगा..
सादर 

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