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यह दुनिया है, या जंगल

आजकल पेशोपेश में हूँ,

इन्सान और जानवर का

भेद मिटता जा रहा है
मौका पाते ही इन्सान

हैवान बन जाता है

अकेले किसी अबला को
कही बेसहारा पाकर
कुत्तों सा टूट पड़ता है,
नोच डालता है अस्मत
किसी बेवा की, किसी कुंवारी की
परम्परा की बेड़िया काटकर शैतान
उजालों के अन्तर्ध्यान होने पर
बोतल से जिन्न निकलकर
विराट राक्षस होकर सड़क पर
आ जाता है,
मानवों का भक्षण करने
सड़क पर आ जाता है,

पर मुखौटा.........
अभी इन्सान का लगाए हुए है।



मौलिक एवं अप्रकाशित
12-02- 2021

Views: 378

Comment

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Comment by Rachna Bhatia on February 14, 2021 at 8:28am

आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार। सर् संज्ञान के लिए आभार।

Comment by Rachna Bhatia on February 14, 2021 at 8:27am

आदरणीय चेतन प्रकाश जी, संवेदनशील विषय पर अच्छी नज़्म हुई। बधाई।

Comment by Chetan Prakash on February 13, 2021 at 9:33pm

आदाब, आदरणीय समर कबीर साहब, नवाजिश , आपने नज्म तक आने की ज़हमत की और रचना को आप का आशीर्वाद मिला | मोहरम, आपने सही फरमाया, मैं ने आपके निर्देश को आत्मसात कर लिया है| साभार !

Comment by Samar kabeer on February 13, 2021 at 6:13pm

जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

'आजकल पेशोपेश में हूँ'

इस पंक्ति में सहीह शब्द "पस-ओ-पेश" है, देखियेगा ।

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