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यूँ तो जनता की रही सरकार कहने के लिए - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२/२१२

.

शेष इस में  क्या  रहा  इनकार  कहने के लिए
कह गया कनखी में सब दरवार कहने के लिए।१।
*
काम जनता के न आयी आज तक ये एक दिन
यूँ तो जनता  की  रही  सरकार  कहने के लिए।२।
*
इश्तहारों के सिवा जनहित का उसमें कुछ नहीं
शेष है बस  नाम  ही  अखबार  कहने के लिए।३।
*
काम कोई भी किया ऐसा न जिसका दम भरें
बात ही  उस की  रही  दमदार  कहने के लिए।४।
*
सब दिहाड़ी पर  बुलाए  उस के ही मजदूर थे
लोग जितने  भी  जुटे  आभार  कहने के लिए।५।

(२०-०१-२१)
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 4, 2021 at 2:11pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, स्नेह व उत्साहवर्धन के लिए आभार।"

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 4, 2021 at 2:11pm

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति, व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।

Comment by Samar kabeer on February 2, 2021 at 5:39pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by TEJ VEER SINGH on February 2, 2021 at 12:23pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। लाज़वाब गज़ल।

काम जनता के न आयी आज तक ये एक दिन
यूँ तो जनता  की  रही  सरकार  कहने के लिए।२।

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