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दो चार रंग छाँव के हमने बचा लिए - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२
टूटे जो डाल से वही पत्ते उठा लिए
दीवार घर की सूनी थी उस पर सजा लिए।१।
**
वैसे खिले थे फूल भी किस्मत से तो बहुत
हमने ही अपनी राह में काँटे बिछा लिए।२।
**
नश्तर थे सब के हाथ में आये कुरेदने
आया था कौन घाव की बोलो दवा लिए।३।
**
कहने को धूप राह में तीखी तो थी मगर
दो चार रंग छाँव के हमने बचा लिए।४।
**
जैसे फिरे थे आपकी गलियों में हम कभी
फिरता रहा है कौन यूँ अपना पता लिए।५।
**
ये कर्ज किससे यूँ भला यारो उतरता है
हर हाल माँ के हाथ जो उट्ठे दुआ लिए।६।
*
मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 19, 2020 at 11:03am

आ. भाई बसन्त कुमार जी, सादर अभिवादन । आपको गजल अच्छी लगी यह मेरे लिए हर्ष का विषय है । स्नेह के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 19, 2020 at 11:02am

आ. मधु जी, सादर अभिवादन । गजल तक आने व सराहना के लिए आभार ।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 18, 2020 at 8:57pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार ।बहुत ही लाजबाब  ग़ज़ल हुई, बधाई स्वीकार करें। 

Comment by Madhu Passi 'महक' on August 18, 2020 at 6:17pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी नमस्कार ।बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई, बधाई स्वीकार करें। 

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