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ये जो चलते फिरते मशीनी
पुतले हो गए हैं हम ।
अंधेरे जलसों के धुएँ
में खो गए हैं हम ।
किसी के अश्क़ को पानी
सा देखने लगे हैं,
किसी की सिसकियों को
अभिनय कहने लगे है।
ये जो चलते फिरते मशीनी
पुतले हो गए हैं हम ,
संवेदनाओं से मीलों
दूर ,हो गए हैं हम ।
.
मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by आशीष यादव on August 26, 2020 at 1:36am

एक सच्चाई ली हुई रचना पर बधाई स्वीकार कीजिए।

Comment by Samar kabeer on August 18, 2020 at 3:58pm

मुहतरमा दीपू जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2020 at 9:57am

आ. दीपू जी, सुन्दर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on August 13, 2020 at 11:14pm

आदरणीया Dipu mandrawal साहिबा, बहुत ख़ूब। बड़ी सच्चाई है आपके अल्फ़ाज़ में। सादर

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