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मापनी 

२२१२ १२१२ ११२२ १२१२ 

 

प्यारी सी ज़िंदगी से न इतने सवाल कर,

जो भी मिला है प्यार से रख ले सँभाल कर. 

 

तदबीर के बग़ैर  तो मिलता कहीं न कुछ, 

सब ख़ाक हो गए यहाँ सिक्का उछाल कर.

 

पहले से कम नहीं हैं हमारी मुसीबतें, 

फिर से कोई नया तू खड़ा मत वबाल कर.

 

दिल में जगह बचे न अगर ख़ुद के ही लिए,  

इतने कभी रखो न वहम मन में पाल कर. 

 

शिकवा-गिला किया न ज़माने के सामने,

अपना ख़याल  कर कभी उनका ख़याल कर. 

 

मुरझा रहे हैं फूल तो कलियाँ उदास हैं, 

ख़ुश्बू मेरे चमन की तू फिर से बहाल कर. 

 

कैसे न हो यक़ीन  तेरी बात पर ‘बसंत’ 

तूने तो रख दिया है कलेजा निकाल कर.


"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 6, 2020 at 4:14pm

 आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' जी सादर नमस्कार, आपकी हौसलाअफजाई और मार्गदर्शन का दिल से शुक्रिया 

नुक्ते लगाना सही में छूट गया ध्यान नहीं गया, ठीक कर लेता हूँ और बह्र भी लिख देता हूँ 

Comment by रवि भसीन 'शाहिद' on July 6, 2020 at 2:18pm

आदरणीय बसंत कुमार शर्मा साहिब, बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही आपने, इस पर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल करें। हुज़ूर, अगर आप बह्र भी लिख दें तो इस मंच पर सीखने वालों को आसानी होगी। कुछ अलफ़ाज़ में नुक़्ते छूट गए हैं, जैसे: बग़ैर, ख़ाक, ख़ुद, ख़याल, ख़ुश्बू, और यक़ीन।

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