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जो कारवाँ भरी थी राहें कहाँ गयीं अब (गजल) -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२२/२२१/ २१२२
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लोरी  सुना  सुलाती  रातें  कहाँ  गयीं अब
बचपन में चहचहाती सुब्हें कहाँ गयीं अब।१।
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दिनभर का खेलना वो हर भूख भूलकर नित
मस्ती भरी  गजब  की  शामें  कहाँ  गयीं अब।२।
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हर छलकपट से बंचित लड़ना झगड़ना लेकिन
मन से निकलती  सच्ची  बातें  कहाँ  गयीं अब।३।
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जिनपर थी झुर्रियाँ ढब हरपल थी कँपकपाती
रखती थी  किन्तु  थामे  बाहें  कहाँ गयीं अब।४।
**
वो होंट खिल-खिलाते मुरझा गये हैं क्योंकर
वो दिल में खुबने वाली आँखें कहाँ गयीं अब।५।
**
देखो जहाँ भी दिखती तन्हाइयाँ उधर ही
जो कारवाँ भरी  थी  राहें कहाँ गयीं अब।६।
*
(५फरवरी२० १९)

मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 23, 2020 at 3:36pm

आ. भाई सुरेंद्र नाथ जी, सादर अभिवादन । गजल पर आपकी उपस्थिति से उत्साहवर्धन हुआ । उपस्थिति के लिए आभार ।

Comment by नाथ सोनांचली on April 23, 2020 at 2:03pm

आद0 लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 19, 2020 at 11:28am

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by TEJ VEER SINGH on April 19, 2020 at 9:44am

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी। बेहतरीन गज़ल।

देखो जहाँ भी दिखती तन्हाइयाँ उधर ही
जो कारवाँ भरी  थी  राहें कहाँ गयीं अब।।

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