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"विधि-विधान व्यवधान" - [लघुकथा] 26 - शेख़ शहज़ाद उस्मानी

दोनों की अपनी अपनी व्यस्त दिनचर्या। बच्चों को सुबह स्कूल बस स्टॉप पर छोड़ने के बाद थोड़ी सी चहलक़दमी से थोड़ा सा साथ, थोड़ा सा वार्तालाप, शायद रिश्तों में छायी बोरियत दूर कर दे।

"तुम्हें जानकर शायद ख़ुशी हो कि फेसबुक और साहित्यिक वेबसाइट में कुल मिलाकर सत्तर लघु कथाएँ, दो ग़ज़लें, दो गीत, कुछ छंद..... मेरा मतलब तकरीबन हर विधा में विधि-विधान के साथ मेरी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।" - लेखक ज़हीर 'अनजान' ने बीच रास्ते में अपनी बीवी साहिबा से कहा। लेकिन सब अनसुना करते उन्होंने एक लम्बी सी साँस लेकर सड़क के किनारे के हरे-भरे पेड़ों की तरफ़ दृष्टिपात किया।

"ग़ज़ब की हौसला अफज़ाई हो रही है तुम्हारे शौहर की इन्टरनेट पर ! दिल्ली के पास रेवाड़ी में साहित्य समारोह में आमंत्रित किया गया है मुझे 21-22 नवम्बर को। दिल्ली में ही 29 को एक बड़े साहित्यिक सम्मेलन में भी बुलाया है।"

बीवी साहिबा ने क़दम और तेज़ चलाकर लम्बी सी साँस ली और कुछ-कुछ अनुलोम-विलोम सी प्रक्रिया सम्पन्न की। अनजान साहब को भी हांफते से हुए अपने क़दम आगे बढ़ाने पड़े।

"यहाँ भी तुम मुझे पीछे छोड़ कर आगे भाग रही हो, क़दम से क़दम मिलाकर, कंधे से कंधा मिलाकर चलियेगा, तभी ज़िन्दगी में लुत्फ़ आयेगा न !"
 होंठ भींचते से हुये फिर वही लम्बी चुप्पी। पार्क में पहुंच कर अनजान साहब ने स्मार्ट फोन से उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ दो फोटो लेकर बमुश्किल एक सेल्फी ले ही ली। घर लौटने पर पूरा ग़ुबार उन पर फूट पड़ा।

" आज तो हद कर दी, मेरी मोर्निंग वाक का सत्यानाश कर दिया । कल से अगर मेरे साथ चलना ही है, तो मोर्निंग वाक के क़ायदे-क़ानून से , समझे ! मुझे किसी भी तरह का ख़लल पसंद नहीं। लम्बी-लम्बी साँसें लीजिए और छोड़िये, तेज़ क़दमों से चलिये या मुझे छोड़िये !"

"और मुझे भी मेरी क़लम चलाते वक़्त किसी तरह का कोई ख़लल या दख़ल पसंद नहीं, समझीं वक़ील साहिबा ! मेरे लेखन के भी कुछ क़ायदे-क़ानून हैं ! तनिक तो हौसला अफज़ाई कीजिएगा या अकेला छोड़िये ! नज़दीक़ रहते हुए भी बस अनजान बने रहियेेगा !" लेखक साहब अपने आँसुओं को नहीं रोक पाये।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by kanta roy on November 4, 2015 at 10:14am

लेखकीय कर्म अगर असाहित्यिक माहौल में पनपता है तो ऐसी ही परिस्थितियां बनती है अक्सर आदरणीय शहज़ाद जी।
आजकल की भौतिकवादी सोच ने साहित्य का बेडा गर्क करके रखा हुआ है।

अगर आप अपनी रचना संसार में लिप्त हो , तो ताना मारते हुए पूछते है घर वाले की इस से क्या हासिल होगा , क्या ये तुम्हें दो वक़्त की रोटी दे सकती है ? यानी काम ऐसा हो जिसमें धन की आवक हो , जहां धन की आवक नहीं वहाँ वक़्त जाय करना बेकार है। यही सोच हिंदी साहित्य का सर्वनाश कर देगी।

जो सक्षम है पद और प्रतिष्ठा से , उनके व्यक्तित्व के लिए ये साहित्य एक अलंकार की तरह ही है , लेकिन फुल- टाइम लेखन समस्त दुनिया के लिए बकवास है।
वो दिन गए की लेखकों को उनके लेखकीय कर्म के लिए सम्मान के साथ समस्त संरक्षण भी प्राप्त होता था। जितने भी महाकवि हुए है इतिहास में सभी किसी न किसी राजा या जमींदारों द्वारा संरक्षण प्राप्त था उन सबको । वे कभी धन अर्जन के लिए अपनी ऊर्जा व्यर्थ नहीं करते थे।
इसलिए वे बिना किसी तनाव के स्वछंद लेखन करते थे। आज की परिस्थितियां बिलकुल विपरीत हो चली है।

आपकी इस सार्थक लघुकथा ने मन को झंझोरकर रख दिया है। बहुत -बहुत बधाई आपको ।

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