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आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना

आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना

 

05 दिसम्बर 1986 के दिन पहली बार जहाज “थुलीलैण्ड” के साथ हम लोगों का रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ. अभी भी नये अभियान दल को अंटार्कटिका पहुँचने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगना था, लेकिन मन में कितने ही मिश्रित भाव उमड़ने लगे. जहाज मॉरीशस के इलाके में था. एक साल पहले वहाँ से गुजरते हुए हम लोगों को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं मिली थी. क्या वापसी यात्रा में हम मॉरीशस की धरती पर उतरेंगे ? कौन जाने ! फिलहाल जहाज के आने की प्रतीक्षा है – उसमें हमारे परिवारजनो और मित्रों द्वारा लिखे गए पत्र आ रहे हैं, हरी सब्ज़ी और ताज़े फल आ रहे हैं ; और सबसे बड़ी बात यह कि हमारी भाषा बोलने वाले हमारे देश के लोग आ रहे हैं....एक साल बाद...!

नये दल के लिए स्वागत की तैयारियों और उत्तेजना के बीच कब अंटार्कटिका के आकाश में सूर्यदेव ने अगले दो महीने के लिए डेरा डाल दिया हमें पता ही नहीं चला. अब चौबीस घंटे वे आकाश से अपनी किरणे बिखेर रहे थे. अच्छे मौसम की स्थिति में किसी भी समय बाहर का काम करना सम्भव था. स्वाभाविक रूप से स्टेशन के बाहर हमारे काम करने की अवधि और गति में वृद्धि होने लगी. काम की गति तेज़ करना आवश्यक था क्योंकि कहीं-कहीं सतही बर्फ़ पिघल रही थी, विशेष रूप से दिन के समय जब सूर्य मध्य गगन में अपने पूरे तेज के साथ होते. सतही बर्फ़ के पिघलने के कारण प्राय: गाड़ी की गति धीमी करनी पड़ती क्योंकि उनके ट्रैक सख़्त बर्फ़ पर फिसलने लगते. कई जगह नर्म बर्फ़ और पिघलते बर्फ़ के पानी से सफ़ेद कीचड़ भी बन रहा था. हमारी कोशिश रहती ऐसे स्थानों को सम्भ्रम दिखाते हुए दूर से ही निकल जाना.

हम जानते थे कि जमा हुआ समुद्र अब पिघलने लगेगा. शेल्फ़ आईस से सटे हुए ‘फ़ास्ट आईस’ पर एक बार फिर उतर कर हिमनदीय व जीवविज्ञान सम्बंधी अध्ययन हेतु नमूने संग्रह करने की इच्छा तीव्र हो उठी. बहुत शीघ्र फ़ास्ट आईस को पानी की लहरें नीचे से चोट करती हुई पिघलाती जाएँगी. बर्फ़ की पर्त और पतली हो जाने के बाद उस पर उतरना ख़तरनाक हो सकता है. टूटा तो हम डूबे. यदि रस्सी से अपने को बाँध भी लिया तो भी उस ठण्डे पानी में चार मिनट से अधिक समय तक ज़िंदा रहना सम्भव नहीं. अत: हम लोगों ने 5 दिसम्बर को ही फ़ास्ट आईस पर जाने का निश्चय किया. इस बार हम कुछ और तैयारी के साथ गए. एक स्लेज, एक स्नो-स्कूटर और पर्याप्त मात्रा में रस्सी (mountaineering rope) हमने साथ ले लिया. जब शेल्फ़ के किनारे परिचित स्थान पर पहुँचे तो हमने देखा कि समुद्र का चेहरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा हमने पिछली बार देखा था. उस बार दूर जिस आईसबर्ग की ओर मैं अपने मौसम विज्ञानी मित्र के साथ चला गया था वह अभी भी अपनी जगह से हिला नहीं था. सबसे पहले हिमनदीय अध्ययन के लिए हमने फ़ास्ट आईस में ड्रिलिंग की. बर्फ़ की मोटाई लगभग वही थी जैसा कि हमने पिछली बार देखा था. हाँ, उसके घनत्व में कुछ अंतर आ गया था. जब वैज्ञानिक आँकड़े और नमूने एकत्रित कर लिए गए तो सभी लोग उस बड़े आईसबर्ग तक जाने के लिए बेताब हो उठे. मौसम बेहद सुहाना था. दलनेता ने हामी भर दी. फिर क्या था...स्नो-स्कूटर के पीछे स्लेज बाँधकर हम चार लोग बैठे. स्कूटर पर चालक समेत दो लोग....और हम जमे हुए समुद्र के ऊपर एक अनोखी यात्रा में निकल पड़े.

मन के किसी कोने में चिंता की रेखा अवश्य थी क्योंकि सभी जानते थे कि शेल्फ़ के किनारे फ़ास्ट आईस की जो मोटाई थी वह समान रूप से हर जगह नहीं हो सकती. पिछली बार हम दो लोग सावधानी से कदम रखते हुए चले गए थे. इस बार स्कूटर और स्लेज के झटके लग रहे थे जिनसे बर्फ़ में अचानक दरार पड़ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती. लेकिन अंटार्कटिका का ऐसा ही जादू है कि ‘अवसर चूकना नहीं चाहिए, ख़तरा कुछ उठाना पड़े तो मंज़ूर है’ वाली मनोभावना लेकर अभियात्री नए नए रोमांचकारी अनुभवों से अपनी झोली भरना चाहते हैं. हमें कौतूहल था देखने की कि आईसबर्ग जब ठण्डे होते समुद्र में जम जाता है तो उसके किनारों का क्या स्वरूप होता है. हम यह भी देखना चाहते थे कि क्या कोई पक्षी या पशु यथा पेंग्विन, सील, व्हेल आदि उस आईसबर्ग के आसपास है ; कितनी दूरी है उस आईसबर्ग की शेल्फ के किनारे से. जब हम आईसबर्ग के पास पहुँचे तो स्कूटर के माईलोमीटर ने दिखाया कि हम शेल्फ़ से सात किलोमीटर दूर थे. वह विशालकाय अति सुंदर आईसबर्ग जिसकी ऊँचाई समुद्र सतह से 80 मीटर के आसपास थी, हमें आकृष्ट करने लगा. हम स्कूटर और स्लेज छोड़कर कैमरा लेकर उसकी ओर चल दिए. एक जगह कुछ काले धब्बों को देखकर हम उसके नज़दीक गए और फिर खुशी से उछल पड़े. वे वास्तव में 10-12 बड़े बड़े लेपर्ड और वेडेल सील थे जो बर्फ़ पर चुपचाप लेटे धूप सेंक रहे थे. उनके दो चार छोटे बच्चे भी पास ही थे. हम उनके काफ़ी करीब गए तथा हमारे जीवविज्ञानी दलनेता ने कुछ आँकड़े भी एकत्रित किया. ये सील 9 से 14 फीट तक लम्बे थे. नर, मादा और बच्चे सीलों का यह भरा-पूरा परिवार निस्तेज होकर बर्फ़ पर पड़ा था लेकिन जब हम उनके बच्चों के पास गए तो बड़े सील गुस्से में गले से आवाज़ करने लगे. हमने पीछे हटने में ही बुद्धिमानी देखी.....और...तभी ख़्याल आया कि सील यदि धूप सेंक रहे हैं तो बर्फ़ में कहीं दरार भी होगी. ऐसी दरारों से होकर ही वे पानी से बाहर निकलते हैं और इन्हीं दरारों से वे पानी में डुबकी लगाकर अपना भोजन संग्रह करते हैं. शीघ्र ही सफ़ेद बर्फ़ में हमें दूर तक खिंची हुई एक काली सी रेखा दिखी. पास जाकर देखा तो वह दरार थी जिसमें से समुद्र का पानी छलक रहा था. दरार होने के कारण बर्फ़ की मोटाई स्पष्ट दिख रही थी –मात्र 6-7 इंच. बहुत ही ख़तरनाक स्थिति थी क्योंकि हमें कुछ ऐसा आभास हो रहा था कि और भी दरारें बन रही हैं.

हमने चुपचाप दबे पाँव उस दरार को लाँघकर पार किया. सौभाग्य से स्कूटर और स्लेज हमने कुछ दूर छोड़ा था नहीं तो स्कूटर को स्टार्ट करने पर जो झटका लगता उससे देखते ही देखते बहुत सी दरारें पड़ने की सम्भावना थी. हम लोग स्लेज को खींचते हुए दूर तक ले गए. फिर उसे स्कूटर के साथ जोड़ा गया और यह उम्मीद लेकर कि ढलते दिन के साथ गिरते तापमान के कारण बर्फ़ का घनत्व अर्थात उसकी मजबूती बढ़ गयी होगी, हम सशंकित हृदय से किंतु सकुशल अपनी पिस्टन बुली में वापस आए. यह एक ऐसा अनुभव था कि हम प्राण रहते कभी भुला न पाएँगे. आज भी उस दिन के घटनाक्रम को याद करता हूँ तो रोमांच होता है.

‘थुलीलैण्ड’ बहुत तीव्र गति से अंटार्कटिका के बाहर “पैक आईस” क्षेत्र में आ पहुँचा. उनके आग्रह पर 13 दिसम्बर को हमारे दलनेता ने मोलोडेज़नाया (molodezhnaya) को, जो कि अंटार्कटिका में रूस का सबसे बड़ा शोधकेंद्र है, अनुरोध भेजा कि वे जहाज के कप्तान को दिशा - निर्देश हेतु सैटेलाईट द्वारा प्राप्त आईस चार्ट उपलब्ध कराए. अंटार्कटिका में ऐसे ही सभी देश एक दूसरे की सहायता करते हैं.
16 दिसम्बर को सभी गाड़ियो की मरम्मत और सर्विसिंग के बाद उन्हें गैराज से बाहर निकाल कर चलाया गया और फिर बाहर ही रख दिया गया. 17 तारीख को हम फिर गए फ़ास्ट आईस पर आँकड़े और नमूने लेने. इस बार किसी तरह का दु:साहस दिखाने का हमने सोचा भी नहीं. पिछले अनुभव के बाद ऐसा करना जुनून नहीं पागलपन होता.

19 दिसम्बर को थुलीलैण्ड फ़ास्ट आईस के उत्तरी किनारे पर पहुँच चुका था और शेल्फ़ से लगभग 50 किलोमीटर दूर था. मौसम ख़राब होने के कारण जहाज से हेलिकॉप्टर का उड़ना सम्भव नहीं हो पा रहा था. फ़ास्ट आईस के ऊपर से गाड़ी लेकर किसी के आने का प्रश्न ही नहीं उठता था. अत: चार दिन और प्रतीक्षा करनी पड़ी. अंतत: 23 दिसम्बर 1986 को 6ठे अभियान के दलनेता और कुछ वरिष्ठ सदस्य हेलिकॉप्टर द्वारा ‘दक्षिण गंगोत्री’ पहुँचे. इसके साथ ही हमारे अभियान का शीतकालीन सत्र समाप्त हुआ और एक नए अध्याय की सूचना हुई.

(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 1, 2014 at 3:55am

आदरणीय शरदिन्दुजी,

निरीक्षण क्षमता तथा उत्साही आचरण के कारण दुर्गम घड़ियाँ भी स्मृतियों में सहेजे जाने लायक क्षण उपलब्ध करा देती हैं. अंटार्कटिका में तो ऐसी यात्राओं, ऐसे प्रवासों के सार्थक कारण भी थे. उसपर से आपकी निरीक्षण क्षमता भी खूब गहन है. इसका अमूल्य लाभ हम पाठकों को उपलब्ध हो रहा है, इसके लिए हम सभी कृतज्ञ हैं.

एक-एक कर कड़ियाँ सामने आ रही हैं. और हम विकैरियसली (vicariously) ही सही बार-बार उस श्वेत महादेश में पहुँच जाते हैं, जहाँ मानवीय जीवन के लिए कुछ भी सहयोगी नहीं है. परन्तु, आप और आपके सहयोगी उद्येश्यपरक जीवन जीते हुए उन दुर्दम्य घड़ियों को भी सहज बनाये दे रहे थे.

आपके लेखन-प्रयासों पर हार्दिक बधाई स्वीकारें, आदरणीय.
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 1, 2014 at 1:05am
आदरणीय शुभ्रांशु जी, मेरे संस्मरण नियमित रूप से पढ़ते रहने के लिए आपका अनुग्रही हूँ.//अन्धेरे के बाद उजाले का अनुभव, एक साथ सारे काम करने का जोश, आपकी कठिनाई और खतरा एक झटके में समझ में नहीं आता है// आपके इस कथन को थोड़ा और स्पष्ट करें तो मुझे एक पाठक की भावदशा से सही अर्थों में एकात्म होने में मदद मिलेगी. सादर.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 1, 2014 at 12:57am
श्रद्धेय विजय जी, आपसे मिला हुआ प्रोत्साहन मेरी रचना के अस्तित्व के लिए संजीवनी है. आपकी महानुभावता के लिए आभार. मैं मानचित्र देने का प्रयास करूंगा. वैसे पुस्तक में मानचित्र, छायाचित्र आदि सभी आवश्यक सामग्री उपलब्ध रहेगी. आपका स्नेह ऐसे ही बनाए रखिएगा. सादर.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on April 1, 2014 at 12:51am
आदरणीय शिज्जु शकूर जी, आपका हर्दिक आभार. जी, मैं अपने इन संस्मरणों को पुस्तकाकार में लाना चाहता हूँ और हो सके तो 2014 समाप्त होने के पहले ही. मेरी पुस्तक के आप पहले संग्राहक हुए....मेरे लिए आप विशिष्ट हैं.
Comment by Shubhranshu Pandey on March 31, 2014 at 5:51pm

अन्धेरे के बाद उजाले का अनुभव, एक साथ सारे काम करने का जोश, आपकी कठिनाई और खतरा एक झटके में समझ में नहीं आता है. लेकिन समुद्र केउपर पिघलते बर्फ़ पर 6-7 इंच उपर चक्कर लगाना ऎसा ही है जैसे बैठे शेर को गले में पट्टा बाँधा देख के पास चले जाओ लेकिन ये पता नहीं रहे कि उसका दूसरा छोर खुला हो...बच गये तो बढिया वर्ना.....

सुन्दर अनुभव...

 

Comment by vijay nikore on March 31, 2014 at 11:49am

यह संस्मरण भी सदैव समान रोचक है। आप सभी में कितना साहस था ! २८ वर्ष पहले ... १९८६.... आपकी-मेरी आयु का वह समय जब लगता है हम कुछ भी कर सकते हैं, उँचाई चढ़ सकते हैं, दूरी फाँद सकते हैं। यदि हो सके तो इस आलेख के साथ एक छोटा सा मानचित्र भी लगा दें। इस रोचक संस्मरण के लिए हार्दिक बधाई।

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 31, 2014 at 9:42am

वाह आदरणीय शरदिंदु सर बहुत ही रोमांचक संस्मरण है मेरे तो रोंगटे खड़े हो गये बहुत बहुत बधाई आपको आपने बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है यदि आप अपने सारे संस्मरण को किताब की शक्ल में पेश करें तो इसे मैं अपने संग्रह मे ज़रूर चाहूँगा।
सादर,

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