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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८६

मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल 

 

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

न हो जब दिल में कोई ग़म तो फिर लब पे फुगाँ क्यों हो
जो चलता बिन कहे ही काम तो मुँह में ज़बाँ क्यों हो //१

जहाँ से लाख तू रह ले निगाहे नाज़ परदे में
तसव्वुर में तुझे देखूँ तो चिलमन दरमियाँ क्यों हो //२


यही इक बात पूछेंगे तुझे सब मेरे मरने पे
कि तेरे देख भर लेने से कोई कुश्तगाँ क्यों हो //३

बसर जब है बियाबाँ में, बुरी फिर क्या ख़बर होगी
जिसे लूटा करे रहज़न वो मेरा कारवाँ क्यों हो //४

वो शाहिद है मेरे हाथों शिकस्ता जामो पैमां का
कि मेरे मैक़दा आने से ख़ुश पीरे मुगाँ क्यों हो //५

तुम्हीं तरगीब देते हो, तुम्हीं करते शिकायत भी
रगों में गर न दौड़े खूँ तो आँखें खूँ फ़िशाँ क्यों हो //६

समा ख़ाना बदोशों पर गिराये क्यों नहीं बिजली
ज़मीं जब है नहीं उनकी तो फिर ये आस्माँ क्यों हो //७

किया अग़राज़ ने महदूद तुमको तो गिला कैसा
करे साहिल की जो सुहबत वो दरिया बेकराँ क्यों हो //८

करो उम्मीद क्यों मुझसे सफ़र का हाल मैं पूछूँ
हो जिसकी और ही मंज़िल वो मेरा हमरहाँ क्यों हो //९

कोई शिकवा नहीं मुझको तुम्हारी बदख़िसाली का
न हो जब परवरिश ऊँची तो लहज़ा शाएगाँ क्यों हो //१० 

तू पानी दे रहा है क्यों दिले अफ़्गार को अपने
जिसे नज़रों से तू मारे वो आशिक़ नीम जाँ क्यों हो //११ 

बना हुलिया फ़क़ीरों का सफ़र तय कर रहे हैं 'राज़'
ख़ुदा की हो जिसे रग़बत वो मुश्ताक़े जहाँ क्यों हो //१२  

~ राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

फुगाँ- आर्तनाद, पुकार, दुहाई: उज़्व- अंग; नक़ूशे संदली बाज़ू- संदली बाहों के चित्र; कुश्तगाँ- मृत, मार दिया गया; शाहिद- गवाह; पीरे मुगाँ- मदिरालय का प्रबंधक; तरगीब- लालच, उत्तेजना, प्रेरणा; खूँ फ़िशाँ- न खून बरसाने वाला; समा- आकाश; अग़राज़- ग़रज़ का बहुवचन; महदूद- सीमित; बेकराँ- असीम; हमरहाँ- हम सफ़र; बदख़िसाली- बुरी प्रकृति/ बुरा स्वभाव; शाएगाँ- उत्तम, बढ़िया; नीम जान- अधमरा; रग़बत- इच्छा, अभिलाषा, रूचि, चाह; मुश्ताक़े जहाँ- दुनिया की चाह रखने वाला;

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Comment by राज़ नवादवी on December 23, 2018 at 10:16am

आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, ग़ज़ल में शिरकत और आपकी सलाह का तहे दिल से शुक्रिया. आपने जो मिसरे सुझाएँ हैं, माशाल्लाह बहुत ख़ूब हैं. जनाब समर कबीर साहब की राय से उनमें आवश्यक बदलाव करता हूँ. सादर. 

Comment by Md. Anis arman on December 22, 2018 at 9:03pm

राज साहब ग़ज़ल के लिये बहुत बहुत मुबारकबाद, आपकी ग़ज़लों में एक अलग बात होती है, वैसे मै थोड़ा हैरान भी रहता हूँ आप इतना लिख कैसे लेते  हैं, इस बात के लिये मै अलग से तारीफ करता हूँ 

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 22, 2018 at 8:46pm

आ0 राज नावादवी साहब समर कबीर साहब ने इस्लाह कर ही दिया है । लेकिन मेरे साथ समस्या यह थी कि फ़ारसी के कठिन शब्द कहाँ कैसे प्रयोग होते हैं इसका ज्ञान मुझे नहीं था । पर एक विचार मैं अवश्य रखना चाहता हूँ । जिस रचना में जितनी अधिक सम्प्रेषण शक्ति होगी वह रचना उतनी अधिक अमरता प्राप्त करने की सम्भवना से युक्त होती है । 

कहने का अर्थ यह है कि सरल शब्दों में भी बड़ी बात कही जा सकती है । हमारे भाव अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे इस उद्देश्य से लिखना अधिक सार्थक पूर्ण होता है । 

सादर ।

Comment by Samar kabeer on December 22, 2018 at 3:46pm

और हाँ :-

शज़र-ए-जाफ़राँ न हो तो शाखे जाफ़राँ क्यों हो'

इस मिसरे में 'जाफ़रां' का अर्थ क्या है?

बाक़ी बात आपके जवाब पर ।

Comment by Samar kabeer on December 22, 2018 at 3:42pm

जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ालिब की ज़मीन में ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

जो चलता बिन कहे ही काम तो उज़्वे ज़बाँ क्यों हो'

इस मिसरे में 'उज़्व' का अर्थ होता है जिस्म का कोई हिस्सा,और "उज़्व-ए-ज़बाँ" का अर्थ हुआ 'ज़बान का हिस्सा' इस लिहाज़ से आप जो कहना चाहते हैं वो मफहूम अदा नहीं हो सका,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'जो चलता बिन कहे ही काम तो मुंह में ज़बाँ क्यों हो'

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 22, 2018 at 12:23pm

जी करता है आपको बस पढ़ते जाएँ राज साहब..

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 21, 2018 at 7:24pm

आ. भाई राजनवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई । ऐब-ए-तनाफुर दूर करने के लिए इन मिसरों को यूँ किया जा सकता था । सादर....
जिसे लूटा करें रहज़न वो मेरा कारवाँ क्यों हो' 
बना हुलिया फ़क़ीरों का सफ़र में राज रहते हैं

Comment by राज़ नवादवी on December 21, 2018 at 12:08pm

इस मिसरे में भी ऐबे तनाफुर है -- 

,जिसे लूटा है रहज़न ने वो मेरा कारवाँ क्यों हो' 

सादर 

Comment by राज़ नवादवी on December 21, 2018 at 12:07pm

पोस्ट करने के बाद मेरे संज्ञान में आया कि इस मिसरे में 

बना हुलिया फ़क़ीरों का सफ़र तय कर रहे हैं 'राज़'

ऐबे तनाफुर है. सादर 

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