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ग़ज़ल नूर की- ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में

२२/२२/२२/२२/२२/२२/२२/२
.
ख़ुद को क़िस्सा-गो समझे है हर क़िरदार कहानी में
क़तरा ख़ुद को माने समुन्दर  जाने किस नादानी में.  
.
कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब गर्मी काहे की
इक दिन सब को जाना है इतिहास की कूड़े दानी में.
.
तैर नहीं सकते थे माना लेकिन चल तो सकते थे
डूब मरे हैं कुछ बेचारे टखनों से कम पानी में.  
.
जादू का इक झूठा कपड़ा पहने फिरते हैं साहिब
और ठगों की पौ-बारह है उनकी इस उर्यानी में.
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पहले जिस के लफ्ज़ लबों के पार न आने पाते थे,
शख्स वही इक सबसे माहिर निकला तल्ख़-बयानी में.  
.
देख के उन को हमने नकली ग़म का चेहरा पहन लिया,
उन की मुश्किल बढ़ जाती गर मिलते हम आसानी में.  
.
याद तुम्हे मैं कर लेता हूँ जब जी घुटने लगता है, 
डूब के साँसें पा जाता हूँ यादों की तुग्यानी में.       
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जानें कब होंगे वो दाना जानें कब वो समझेंगे
वस्ल की रात गुज़र जाती है उनकी आनाकानी में.
.
नूर है मंज़िल “नूर” ही राही बस रस्ता अँधियारा है, 
दुनिया तुझ में यूँ रहता हूँ जैसे तेल हो पानी में.
.
पुछल्ला 

दुश्मन दुश्मन चिल्लाते हैं फिर भी गले लगाते हैं
सोचो कैसा स्वाद बसा है मरियम की बिर्यानी में.
.
निलेश "नूर" 
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 1570

Comment

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Comment by Samar kabeer on April 9, 2018 at 6:21pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब, ये ग़ज़ल भी बहुत उम्दा और मुरस्सा हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

दूसरे शैर में 'कूड़े दानी' सही नहीं है,सही शब्द है "कूड़े दान",देखियेगा ।

4थे के सानी में 'ठगों की' को "ठगों के" कर लें,आगे 'है' को "हैं" कर लें ।

कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं :-

'क़िरदार'---"किरदार"

'टखनों'---"टख़नों"

'लफ्ज़'---"लफ़्ज़"

'शख्स'---"शख़्स"

'नकली'---"नक़ली"

'तुगयानी'---"तुग़यानी"

----

ये 'मर्यम की बिर्यानी" क्या है भाई ?

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 9, 2018 at 5:54pm

आदरणीय निलेश भाई इस ग़ज़ल को गुनगुनाकर बबड़ा आनंद आया .एक जवार्दस्त बहाव लिए उम्दा ग़ज़ल के लिए ढेरों ढेरों शुभकामनाएं सादर

Comment by बसंत कुमार शर्मा on April 9, 2018 at 5:31pm

क्या कहने लाजबाब प्रवाहमान गजल हुई है, बहुत बहुत मुबारकबाद आपको  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 9, 2018 at 1:42pm

धन्यवाद आ. तेजवीर सिंह जी 
आपके द्वारा चिन्हित शेर का मिसरा    बदल रहा हूँ..
इसे यूँ पढ़िए..
कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब कैसी मग़रूरी 
.
आभार 

Comment by TEJ VEER SINGH on April 9, 2018 at 1:24pm

हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी।बेहतरीन गज़ल।

कैसा हिटलर कौन हलाकू, साहिब गर्मी काहे की 
इक दिन सब को जाना है इतिहास की कूड़े दानी में. 

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