जज़्बात
(अतुकांत)
हर फ़ल्सफ़: यूँ बयाँ न ही हो तो अच्छा
शबे-वस्ल हमेशा मीठी तो नहीं होती
रात-अँधेरे जब नींद ओझल हो आँखो से
चले आते हैं मेरे ही फ़ल्सफ़े डसने मुझको
मेरा कहा आज कलामे मुस्तदाम न सही
या अल्फ़ाज़ मेरे चरागे आस्मानी न सही
जानता हूँ सोचेगा कर्दगार खुदा ही कभी
क़लमदस्त का कलाम ऐसा बुरा तो न था
रहमत होगी तब खुदा की, बुलाएगा मुझ्रे
रिहाइश के वास्ते वह आलमे मलकूत में
कहूँगा उससे लाहासिल है बुलावा उसका
भर चुका है अब तो उम्र का पैमाना मेरा
पता नहीं किस वास्ते करता रहा है वह
कब से अभी तक किस्मत आज़्माई मेरी
जो पूछेगा वह मुझसे कि मेरी रज़ा क्या है
कह दूँगा तन कर तब परवरदिगार से भी
कलम कार हूँ मैं ....आशिक मिजाज हूँ
दे दे मेरे चश्म-ए- पुर आब को अब तो
जज़्ब-ए-दिल, और ले आए सामने मेरे
बचपन की वह आश्ना सूरत दिलनशीं
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--विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
फ़्ल्सफ़: = तर्क
शबे-वस्ल = मिलन-रात्रि
कलामे मुस्तदाम = ईश्वर की ओर से पैगम्बर पर आने वाल आदेश
चरागे आस्मानी = बिजली
कर्दगार = ईश्वर, सर्वशक्तिमान
क़लमदस्त = लिखने वाला
रहमत = कृपा
रिहाएश = रहने की जगह
आलमे मलकूत = जहाँ केवल फ़रिश्ते रहते है
लाहासिल = व्यर्थ
परवरदिगार = परमेश्वर
कलमकार = लिखने वाला
चश्मे पुरआब = जिस आँख में आँसू भरे हुए हों
जज़्बएदिल = हृदयाकर्षण
Comment
भाई मोहम्मद आरिफ़ जी, यह मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार। ऐसे ही मनोबल बढ़ाते रहें।
भाई समर जी, आपसे मिली सराहना बहुत मान्य रखती है, क्यूँकि आप कवि ही नहीं अच्छे टीचर भी हैं। सुझाव के लिए हार्दिक आभार। सुधार कर दिए हैं।
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,
अद्भुत , बेजोड़ और शानदार अश'आर । यह समय आपकी कविताओं का नया संस्करण का कालखंड लगता है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब, क्या कमाल कर रहे हैं आप, उर्दू ज़बान में इतनी शानदार कविता,मुग्ध हूँ इसे पढ़ कर,वाह वाह बहुत ख़ूब, अल्फाज़ की नशिस्त क़ाबिल-तारीफ़ है, इस पेशकश पर दिल से ढेरों मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'चश्मे पुरआब' इस तरह लिखें "चश्म-ए- पुर आब"
इसी तरह 'जज़्बएदिल',"जज़्ब-ए-दिल"
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