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कब्र जान-ए- आदमी है लिखो पंकज यह घर है- ग़ज़ल

2122 2122 2122 2122
ये भला कैसा प्रहर है, दूर मुझ से हमसफर है
नाम उसका ही जपे मन, खुद से लेकिन बेखबर है

मन्द सी मुस्कान ले कर, नूर बिखराया है किसने
आईने में खुद नहीं मैं, इश्क़ का कैसा असर है

इक दफ़ा ही तो मिलीं थीं, पर खुमारी अब भी बाकी
उम्र भर मदहोश रहना, यूँ नशीली वो नज़र है

सर्द अहसासों का मौसम, तो है पतझड़ बाग़ में
उफ़्फ़, ख्वाबों के झरे पत्ते घिरा बेबस शजर है

कंकरीटों की दीवारों बीच रहता ख़ुश्क कोई
कब्र जाने आदमी है, मत लिखो पंकज ये घर है

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 31, 2017 at 10:50pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम, आपके सुझावानुरूप संशोधन कर दिया है।।
Comment by Himanshu pandey on January 31, 2017 at 2:41pm
लाजवाब गज़ल
Comment by Samar kabeer on January 29, 2017 at 7:13pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरे शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ देखिये ।
चौथे शैर में 'सजर'को "शजर" कर लें ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 29, 2017 at 4:47pm
आदरणीय कालीप्रसाद सर ग़ज़ल पर सार्थक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार
Comment by Kalipad Prasad Mandal on January 29, 2017 at 4:01pm

उफ़्फ़, ख्वाबों के झरे पत्ते घिरा बेबस सज़र है--- इस मिसरा को एक बार अरूज़ के हिसाब से देख लीजिये "पत्ते" को 

Comment by Kalipad Prasad Mandal on January 29, 2017 at 3:56pm

आ पंकज जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,हार्दिक बधाई स्वीकार करे |

कृपया ध्यान दे...

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