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ग़ज़ल -नूर- कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो

१२१२ /११२२ /१२१२ /२२ (११२)
.
कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,
जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो.
.
ग़ज़ब सितम है इसे यूँ अलग थलग रखना,
शराब ज़ह’र नहीं है इसे दवा में रखो.
.
इधर हैं बाढ़ के हालात और उधर सूखा,
हमारी दीदएतर अब, उधर फ़ज़ा में रखो.
.
शबाब हुस्न पे आया तो है मगर कम कम,
है मशविरा कि हया भी हर इक अदा में रखो.
.
तमाम फ़ैसले मेरे तुम्हे लगेंगे सही,
अगर जो ख़ुद को कभी तुम मेरी क़बा में रखो.  
.
ज़बां पे जो भी रहे वो निगाह में भी रहे,
ये तालमेल इरादों में ....इल्तिजा में रखो.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 850

Comment

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Comment by Samar kabeer on May 2, 2016 at 7:57pm
जनाब सौरभ पांडे जी आदाब,'दीद'स्त्रीलिंग है और "दीदा"पुल्लिंग",डिक्शनरी में यही बताया गया है ।
"ग़ज़ब"का पहला अर्थ है'ग़ुस्सा','कहर',दूसरा अर्थ वो है जो आपने समझा है यानी'कलमए हैरत','ग़ज़ब'की जगह 'बड़ा'रखने से मिसरा बिलकुल साफ़ हो जाता है ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 7:39pm

बहुत खूब नीलेश भाई ! वाह ! 

आदाब के साथ सवाल आदरणीय समर साहब से - 

दीद-ए-तर पुल्लिंग क्यों हो आदरणीय समर साहब ? दीद को किस हिसाब से पुल्लिंग किया जाना सही होगा ? क्योंकि तर तो विशेषण है. (जिसका अर्थ आर्द्र या नम होता है).

दूसरी एक और बात, सितम अवश्य ’बड़ा’ होता है. लेकिन, यदि चकित हुआ कोई शख़्स उसके लिए ’ग़ज़ब’ कह दे यह विस्मयाधिबोधक शब्द की तरह प्रयुक्त होगा. जोसही ही होगा.  ऐसे में वैसी गलती नहीं मालूम हो रही, जैसी ’बड़ा’ और ’बहुत’ के घालमेल से अकसर हुआ करती है.  

आपकी नेक सलाह की प्रतीक्षा है, आदरणीय.

Comment by जयनित कुमार मेहता on May 2, 2016 at 6:52pm
आ. नीलेश जी, लीक से हटी एकदम अलग तरह की ग़ज़ल कहने के लिए बधाई आपको।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2016 at 2:25pm

शुक्रिया आ. मिथिलेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 2, 2016 at 1:51am

आदरणीय निलेश जी बहुत शानदार ग़ज़ल कही है. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.

आदरणीय समर कबीर जी का हार्दिक आभार इस्लाह के लिए. 

//दूसरे शैर के ऊला मिसरे में'ग़ज़ब'की जगह "बड़ा"शब्द // इस अनुपम सीख ने बहुत कुछ सिखा दिया. समझा दिया. वाकई 'गज़ब' को 'बड़ा' लिखने की महत्ता को ही समझना है. ग़ज़ल कहने का हुनर यों ही नहीं आ जाता बहुत गहराई से विचारना और फिर सही शब्द देना बहुत जरुरी है. आपकी टिप्पणी पढ़ते तक 'गज़ब' शब्द मुझे भी अजीब नहीं लगा बल्कि सामान्य लगा या कहूं सही लगा. लेकिन आपकी टिप्पणी के बाद अपनी भूल समझ आई. मुझे अभी बहुत मेहनत करनी होगी. दिल्ली अभी बहुत दूर है. सादर 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on May 1, 2016 at 8:22pm

जनाब नीलेश नूर साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ......... शेर 2 के उला मिसरे में गज़ब सितम की जगह ज़ियादती शब्द ठीक रहेगा क्या ? ... सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2016 at 6:43pm

शुक्रिया 

Comment by Anuj on May 1, 2016 at 5:34pm

कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,
जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो. 

"नई ग़ज़ल" का प्रतिनिधि शेर ! ऐसे और शेरों के लिए दुआगो हैं ...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2016 at 4:10pm

शुक्रिया आ. समर सर... मूल प्रति में बदलाव किये लेता हूँ ..

Comment by Samar kabeer on May 1, 2016 at 4:02pm
जनाब निलेश 'नूर'साहिब आदाब,बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे में'ग़ज़ब'की जगह "बड़ा"शब्द मुनासिब होगा क्या ?
तीसरे शैर के सानी मिसरे में'हमारी दीदए तर'की जगह "हमारा दीदए तर"करलें क्योंकि डी "दीदए तर"पुल्लिंग है ।बाक़ी शुभ शुभ ।

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