१२१२ /११२२ /१२१२ /२२ (११२)
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कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,
जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो.
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ग़ज़ब सितम है इसे यूँ अलग थलग रखना,
शराब ज़ह’र नहीं है इसे दवा में रखो.
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इधर हैं बाढ़ के हालात और उधर सूखा,
हमारी दीदएतर अब, उधर फ़ज़ा में रखो.
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शबाब हुस्न पे आया तो है मगर कम कम,
है मशविरा कि हया भी हर इक अदा में रखो.
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तमाम फ़ैसले मेरे तुम्हे लगेंगे सही,
अगर जो ख़ुद को कभी तुम मेरी क़बा में रखो.
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ज़बां पे जो भी रहे वो निगाह में भी रहे,
ये तालमेल इरादों में ....इल्तिजा में रखो.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब नीलेश भाई ! वाह !
आदाब के साथ सवाल आदरणीय समर साहब से -
दीद-ए-तर पुल्लिंग क्यों हो आदरणीय समर साहब ? दीद को किस हिसाब से पुल्लिंग किया जाना सही होगा ? क्योंकि तर तो विशेषण है. (जिसका अर्थ आर्द्र या नम होता है).
दूसरी एक और बात, सितम अवश्य ’बड़ा’ होता है. लेकिन, यदि चकित हुआ कोई शख़्स उसके लिए ’ग़ज़ब’ कह दे यह विस्मयाधिबोधक शब्द की तरह प्रयुक्त होगा. जोसही ही होगा. ऐसे में वैसी गलती नहीं मालूम हो रही, जैसी ’बड़ा’ और ’बहुत’ के घालमेल से अकसर हुआ करती है.
आपकी नेक सलाह की प्रतीक्षा है, आदरणीय.
शुक्रिया आ. मिथिलेश जी
आदरणीय निलेश जी बहुत शानदार ग़ज़ल कही है. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं.
आदरणीय समर कबीर जी का हार्दिक आभार इस्लाह के लिए.
//दूसरे शैर के ऊला मिसरे में'ग़ज़ब'की जगह "बड़ा"शब्द // इस अनुपम सीख ने बहुत कुछ सिखा दिया. समझा दिया. वाकई 'गज़ब' को 'बड़ा' लिखने की महत्ता को ही समझना है. ग़ज़ल कहने का हुनर यों ही नहीं आ जाता बहुत गहराई से विचारना और फिर सही शब्द देना बहुत जरुरी है. आपकी टिप्पणी पढ़ते तक 'गज़ब' शब्द मुझे भी अजीब नहीं लगा बल्कि सामान्य लगा या कहूं सही लगा. लेकिन आपकी टिप्पणी के बाद अपनी भूल समझ आई. मुझे अभी बहुत मेहनत करनी होगी. दिल्ली अभी बहुत दूर है. सादर
जनाब नीलेश नूर साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं। ......... शेर 2 के उला मिसरे में गज़ब सितम की जगह ज़ियादती शब्द ठीक रहेगा क्या ? ... सादर
शुक्रिया
कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,
जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो.
"नई ग़ज़ल" का प्रतिनिधि शेर ! ऐसे और शेरों के लिए दुआगो हैं ...
शुक्रिया आ. समर सर... मूल प्रति में बदलाव किये लेता हूँ ..
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