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गुमनाम कर्म (लघु कथा)

"साहब ये देखिये लहलहाता खेत, दो साल पहले यहाँ बंजर जमीन थी, हम लोग जब इसे उपजाऊ बना सकते हैं तो आसपास की सारी ज़मीन क्यों नहीं?"

"बिलकुल ठीक है, इस गाँव के लिये जितने भी रुपयों का आपने प्रस्ताव भेजा है, वो मंजूर किया जाता है|"

खेत के एक कोने में हरी चुपचाप खड़ा था, उस अकेले की दो साल की मेहनत के बाद कम से कम चौधरी जी तो गुमनामी के अँधेरे से बाहर आये, जिनका पूरा परिवार अब गहनों, कपड़ों और देश विदेश की यात्राओं का हिसाब लगाने में मग्न था|

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 2, 2015 at 3:17pm

आदरणीय चंद्रेश जी ..यह सच है करता कोई है पाता कोई है ..सही आदमी को सच्चे आदमी को न्याय , सुख सुबिधा सम्मान मिल ही नहीं पाता .इस सुंदर चित्रण के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 2, 2015 at 1:33pm

अहा! क्या बात है जमीनी हक़ीकत सामने लाकर रख दी आपने चंद्रेश जी तहेदिल से बधाई! बहुत ही बेहतरीन लघुकथा!

Comment by kanta roy on July 2, 2015 at 11:06am
मेहनत कर बंजर को हरितिमा का उपहार देने वाला अब भी वहीं चुपचाप रहा वहीं पर और उसके मेहनत को सीढ़ी बना कर कोई आसमान चढ गया ।
मजदूर वर्ग और गरीब किसान जो दूसरों के खेत में काम करते है अक्सर शोषण के शिकार होते ही है ।
हमेशा की तरह सार्थक लघुकथा का निर्माण किया है आपने आदरणीय चंद्रेश जी ......बधाई

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