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" हम " का बार बार बिखरना

चैन से रहते थे कभी
तीन कमरों की छत के साये में 
मैं ,मेरे माँ-बाबूजी
मेरी पत्नि 
मेरे बच्चे शामिल थे
एक 'हम ' शब्द में ।


धीरे धीँरे 
'हम ' शब्द बिखर गया
मा-बाबूजी बाहर वाले 
कमरे में भेज दिये गयेे
अब वो दोनों हो गये थे
' हम ' और माँ-बाबूजी 
अब हम ' का विस्तार 
मैं,मेरी पत्नि,मेरे बच्चों
तक सिमट गया था
माँ -बाबूजी 'और' हो चुके थे ।।


मेरा बेटा भी अब
बाल बच्चेदार हो गया हैे
'हम ' शब्द  आतुर है
एक बार फिरसे टूटने बिखरने 
मैं -मेरी पत्नि
' और '  होने वाले हैं 
मेरे बेटे के परिवार के लिये
मुझे अफसोस नहीं मेरे 
और हो जाने का 
अफसोस है
बाहर वाले कमरे को
कैसे खाली कराऊँ 
माँ-बाबूजी से ।।।

मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा





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Comment

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Comment by umesh katara on April 2, 2015 at 10:40am

आदरणीय Shyam Narain Verma जी सादर आभार

Comment by Shyam Narain Verma on April 2, 2015 at 10:02am

इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई

सादर

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