मन का मीत मन को छल गया 
 आँख का पानी मचल गया
वो मेहन्दी हाथ की मेरे चिटक के रह गयी 
 वो मछली नेह की मेरे , तड़फ़ के रह गयी 
 देह का सागर जल गया
पराई छाँव थी , आख़िर मैं रोकता कब तक
 पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक 
 समय के हाथ से सावन फिसल गया
लिपट के रोटी रही , मन से मेरे प्रीत मेरी 
 वो अन्छुयी ही रही , मेरे स्वप्न की कोरी देहरी 
 आस का संबल गल गया
मौलिक अप्रकाशित
 अजय कुमार शर्मा
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पराया ख्वाब था , आख़िर मैं सोचता कब तक 
समय के हाथ से सावन फिसल गया....सुन्दर रचना आदरणीय अजय जी , हार्दिक बधाई !
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