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कुछ माह पहले

 

पैरों में लिपटते थे सांप

कीचड में सनते थे

पैर और वाहन

पसीने से चुभते थे वपुष में कांटे

धुप में झुलसी जाती थी देह

कुछ माह पहले  

 

नभ से बरसता था

थका-थका मेह

पुरवा से ऐठती थी ठाकुर की देह

क्वार की धूप में हांफता था बैल   

कुछ माह पहले

 

हवा में नमी थी

चलता न वात 

पंखा हांकने से सूखता न गात

बरगद के नीचे भी ठंढी न छाँव

हिलते नहीं नीम- जामुन के पाँव  

कुछ माह पहले 

 

लोग कहते

अमा कातिक की हो

गर्मी से मिले त्राण

किसी तरह बचे आफत से प्राण

जाड़े में तपते की आग ही भली

और चिनियाबादाम मूंग की फली

कुछ माह पहले  

 

शीत ने जगाया

तनिक चैन आया

कुछ दिन बीते छाया कुहरा घना

बादल के पीछे-पीछे सूरज अनमना

बर्फीली आन्धी ने ढाया चुप कहर

हाड़ कपाती है शीत की लहर

इससे तो ठीक थे गर्मी के दिन  

कुछ माह पहले

 

पूस ने चढ़ाई की

दांत लगे बजने

ओस से दूब पर मोती लगे सजने

धुंध का पसारा किया जाड़े की धज ने     

काम बंद, धाम बंद सहज नहान बंद

मुमकिन नहीं है अब कैसे लौट जांए    

कुछ माह पहले

 

वर्तमान नहीं देता

कभी संतुष्टि

आत्मा जीव की

न पाती कभी तुष्टि

सबको सदा अतीत है भाता

आवरण में लिपटा भविष्य है डराता

आह कितना कष्ट है आज और अब

जो कुछ व्यतीत हुआ कितना था भव्य

कुछ माह पहले ! 

(मौलिक व् अप्रकाशित )

Views: 507

Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on January 14, 2015 at 7:00pm
बहुत सुन्दर , " सबको सदा अतीत है भाता " .
सबको सदा अतीत है भाता
पर चाह कर भी कोई
लौट कर अतीत में जा नहीं पाता ,
अतीत ही बार-बार स्मृतियों में ,
लौट - लौट आता ,
जो था अतीत में उसकी तुलना में ,
वर्तमान के अभाव है गिनाता ,
इसीलिये वर्तमान अतीत के सामने
हर बार छोटा पड़ जाता , छोटा पड़ जाता।
जो पंक्तियाँ कुछ बोलने को विवश कर दें , उनकीं हम क्या तारीफ़ करें, बधाई, आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , सादर।
Comment by somesh kumar on January 14, 2015 at 3:12pm

वर्तमान नहीं देता

कभी संतुष्टि

आत्मा जीव की

न पाती कभी तुष्टि

सबको सदा अतीत है भाता

आवरण में लिपटा भविष्य है डराता

आह कितना कष्ट है आज और अब

जो कुछ व्यतीत हुआ कितना था भव्य

कुछ माह पहले ! 

कितना सत्य है इन बातों में ,सुंदर रचना |

Comment by khursheed khairadi on January 14, 2015 at 2:41pm

पैरों में लिपटते थे सांप

कीचड में सनते थे

पैर और वाहन

पसीने से चुभते थे वपुष में कांटे

धुप में झुलसी जाती थी देह

कुछ माह पहले  

 

नभ से बरसता था

थका-थका मेह

पुरवा से ऐठती थी ठाकुर की देह

क्वार की धूप में हांफता था बैल   

आदरणीय गोपालनारायण सर बहुत सजीव वर्णन है | बिंब सोंदर्य चरम पर है |

ओस से दूब पर मोती लगे सजने

धुंध का पसारा किया जाड़े की धज ने     

हार्दिक बधाई सादर अभिनन्दन |

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