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ग़ज़ल - जी रहा इंसान था वो मर गया क्या ? ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122     2122 

खूब बोला ख़ुद के हक़ में, कुछ हुआ क्या ?

तर्क भीतर तक तुझे ख़ुद धो सका क्या ?

 

खूब तड़पा , खूब आँसू भी बहाया

देखना तो कोई पत्थर नम हुआ क्या ?

 

मिन्नतें क्या काम आई पर्वतों से

तेरी ख़ातिर वो कभी थोड़ा झुका क्या ?

 

जब बहलना है हमें फिर सोचना क्यों

जो बजायें, साज क्या है, झुनझुना क्या ?

 

लोग सुन्दर लग रहे थे मुस्कुराते

वो भी हँस पाते अगर, इसमें बुरा क्या ?

 

सरसराती इन हवाओं से फ़साना  

भर के सीने में हवा, तुमने सुना क्या ?

 

मैने यादों को मनाया था बहुत कल

देखता हूँ उनका आना अब रुका क्या ?

 

ख़्वाब मुझको तीर, ख़ंजर, बम के आये

जी रहा इंसान था वो मर गया क्या ?

 

जब नुक़ूशे शक़्ल सब कुछ बोलते हैं --      शक़्ल में उभरी रेखायें

फिर ख़मोशी क्या किसी की, बोलना क्या ?

 

मेरा घर शीशे का है , सब कुछ अयाँ है   -     ज़ाहिर , प्रकट 

दर किसी के वास्ते अब खोलना क़्या ?

*************************************

मौलिक  एवँ अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 10:05pm

आदरणीय अनुराग भाई , अपका बहुत बहुत आभार । आपने  बहुत बढिया सुझाव दिया है , कुछ तो बहुत अच्छे हैं  उन्हे मै स्वीकार करता हूँ । कहीं कहीं मै जो कहना चाहता हूँ वह नही कह पाये हैं फिर भी प्रयास बहुत अच्छा है । सबके बात कहने के अंदाज़ अलग अलग होते हैं , फर्क़ इसी बात का है बस । इस्लाह के लिये आभार आपका ।

Comment by Anurag Prateek on December 29, 2014 at 9:48pm

अपने हक़ में खूब बोला, कुछ हुआ क्या ?

और अपने आप को  समझा सका क्या ?

तर्क भीतर तक तुझे ख़ुद धो सका क्या ? – हिंदी उर्दू में ‘तर्क’ का मतलब अलग है

खूब तड़पा , खूब आँसू भी बहाया

देख तो लो कोई पत्थर नम हुआ क्या ? 

मिन्नतें क्या काम आई पर्वतों से

पर्वतों से मिन्नतें आखिर भला क्यों

तेरी ख़ातिर वो कभी थोड़ा झुका क्या ? 

जब बहलना है हमें फिर सोचना क्यों

साज या आवाज क्या है, झुनझुना क्या ? 

लोग सुन्दर लग रहे थे देखने में

काश! हँस पाते कभी, लेकिन बुरा क्या ?—मुस्कराना, हँसाना साहित्य में एक ही बात है  

सरसराती इन हवाओं का  फ़साना  

आती-जाती सांसों में, तुमने सुना क्या ? 

मैंने यादों से बहुत पीछा छुडाया

आना-जाना उन ख्यालों का रुका क्या ?

घर मेरा शीशे का है, सब कुछ अयाँ है       

दर किसी के वास्ते अब खोलना क़्या ?

ख़्वाब सारे  तीर, ख़ंजर, बम के आये

देख तो इंसान अब वो मर गया क्या  ?

 जब नुक़ूशे शक़्ल सब कुछ बोलते हैं    

फिर ख़मोशी क्या, किसी का बोलना क्या ?

 --- वाआआआआआअह क्या बात है गज़ल खूबसूरत हुई है, थोडा बहुत हेर-फेर कर दें तो और रवानी आ जाये.

नज़रे–सानी की  जरूरत है मोहतरम, माजरत के साथ. मैंने भी कोशिश की है लेकिन ख्याल आपके हैं आप और अच्छा  कह सकते हैं, गुंजाईश है   

 


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 8:05pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका दिली  शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 8:04pm

आदरणीय राम भाई , गज़ल की तारीफ़ का बहुत शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 8:03pm

आदरणीय आशुतोष भाई , उत्साह वर्धंन लिये आपका हार्दिक आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 8:02pm

आदरणीय खुर्शीद भाई , आप जैसे ग़ज़ल कार से सराहना पाना मेरे लिये तमगे के समान है , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 8:01pm

आदरणीय बागी भाई , आपकी सराहना ने गज़ल कहना सार्थक कर दिया , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 29, 2014 at 7:59pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपकी सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 7:41pm

अनुज भंडारी  जी

जब आपकी कलम बोलती है तो फिर बोलती है -

जब नुक़ूशे शक़्ल सब कुछ बोलते हैं --     

फिर ख़मोशी क्या किसी की, बोलना क्या ?

 

मेरा घर शीशे का है , सब कुछ अयाँ है   -    

दर किसी के वास्ते अब खोलना क़्या ?

Comment by ram shiromani pathak on December 29, 2014 at 5:44pm
अहा मज़ा आ गया आदरणीय।।हार्दिक बधाई आपको।।सादर

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