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फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, कर्पूर

मिठाई, पूजा, आरती, दक्षिणा

चुपचाप ये सबकुछ ग्रहण कर लेगा

अगर देना चाहोगे जानवरों या इंसानों की बलि

उसे भी ये चुपचाप स्वीकार कर लेगा

पर जब माँ बनते हुए बिगड़ जाएगी तुम्हारी बहू या बेटी की हालत

तब उसे छोड़कर किसी बड़े अस्पताल में किसी बड़े आदमी की

बहू या बेटी के सिरहाने डाक्टरों की फ़ौज बनकर खडा हो जाएगा

जब किसी झूठे केस में गिरफ़्तार कर लिया जाएगा तुम्हारा बेटा

तब उसे छोड़कर किसी अमीर बाप के बिगड़े बेटे को बचाने के लिए

वकीलों की फ़ौज बनकर खड़ा हो जाएगा

जब तुम स्वर्ग जाने की आशा में

किसी तरह अपनी जिन्दगी के अंतिम दिन काट रहे होगे

तब ये किसी अमीर बूढ़े के लिए

धरती पर स्वर्ग का इंतजाम कर रहा होगा

ये तुम्हारा ईश्वर नहीं है

तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है

अब जो दुनिया चला रहा है

वो ईश्वर पूँजीवादी है

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Akhand Gahmari on April 9, 2014 at 6:48pm

बेहतरीन रचना के लिए बहुत सी बधाई आपको

Comment by Akhand Gahmari on April 9, 2014 at 6:48pm

बेहतरीन रचना के लिए बहुत सी बधाई आपको

Comment by Meena Pathak on April 9, 2014 at 3:36pm

सुन्दर रचना , बधाई 

Comment by Shyam Narain Verma on April 9, 2014 at 12:48pm

बहुत खूब! 

Comment by Arun Sri on April 9, 2014 at 11:23am

//तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है//

गिरते मानवीय मूल्यों पर करार व्यंग किया है आपने ! प्रभावशाली कविता !


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Comment by rajesh kumari on April 9, 2014 at 11:15am

सामाजिक असामान्यताओं से प्रेरित हुए आक्रोशित मन की  भावनाएं शब्द बनकर जो फूटी हैं इस रचना में वो देखते ही बनती है इस बेहतरीन रचना के लिए बहुत सी बधाई आपको धर्मेन्द्र जी|  

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