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गर्भाधान (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

“पापा ! टीचर ने कहा है कि फीस जमा करवा दो, नहीं तो इस बार नाम अवश्य काट दिया जाएगा।"
“अजी सुनते हो ! बनिया आज फिर पैसे मांगने आया था।”
“अरे बेटा ! कई दिन हो गए दवाई खत्म हुए, अब तो दर्द बहुत बढ़ता जा रहा है, आज तो दवाई ला दो।”

ये सभी आवाज़ें उसके मस्तिष्क पर हथोड़े की भाँति चोट कर रही थीँ।
मगर उसके दिल में एक नई कविता का खाका जन्म ले रहा था।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:42pm

आदरणीय मीना पाठक जी व आदरणी चन्द्रशेखर जी
लघुकथा पढ़ने व पसंद करने हेतु हृदय से धन्यवाद ।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:41pm

आदरणीय डाॅ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,
लघुकथा की रूह में उतरने पर आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आपकी टिप्पणी से कृतार्थ हूं।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:39pm

आदरणीय जितेन्द्र जी एवं गिरीराज भंडारी जी,
लघुकथा पर आपकी विवेचना का हृदय से आभार ।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:36pm

परम आदरणीय बागी भाई जी,
आप लघुकथा की रूह तक पहुंचे धन्यवाद। आपसे शाबासी प्राप्त करना सदैव बहुत ही अच्छा लगता है। भविष्य में भी आपका आशीर्वाद मिलता रहे....... धन्यवाद ।

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:29pm

माननीय गीतिका बहन, अापकी उत्‍साहवर्धक टिप्‍पणी से आनंदित हुआ, धन्‍यवाद.

Comment by Ravi Prabhakar on December 11, 2013 at 2:26pm

आदरणीय शिज्‍जु शकूर जी, आपने लघुकथा का मर्म समझा, और आपको यह अच्‍छी लगी, धन्‍यवाद

Comment by vijay nikore on December 11, 2013 at 7:53am

इस सशक्त लघु कथा के लिए बधाई,आदरणीय

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by coontee mukerji on December 10, 2013 at 10:35pm

बहुत सुंदर लघु कथा.बधाई स्वीकार करें.

सादर

Comment by Shubhranshu Pandey on December 10, 2013 at 6:05pm

आदरणीय रवि जी, 

मस्तिष्क पर हथौडे़ के अनवरत प्रहार हुए हैं.. फिरभी हृदय से उठती कोमल स्वरलहरियों के स्पंदन को रोक नहीं सका. 

.......अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ.......गुलाम अली की गजल को गुनगुनाने का मन कर रहा है....

सादर. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 10, 2013 at 4:16pm

शीर्षक से लेकर लघुकथा के अंतिम शब्द तक सबकुछ सार्थक, व्यवस्थित और सहज. वाह वाह वाह !

बहुत दिनों पर इस विधा में वस्तुतः कुछ ऐसा पढ़ा जिससे एक पाठक के तौर पर अपने वर्तमान को बिना किसी अतिरेक या शिष्टाचारी व्यवहार के जोड़ गया. एक सामान्य से तथ्य का अद्वितीय प्रस्तुतीकरण !
बधाई, अनुज रविजी ,बधाई.. !

शुभ-शुभ

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