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हाँफता काँपता सा

हाथी भागा जा रहा था

चीखता हुआ

‘वो निकाल लेना चाहते हैं

मेरे दाँत

सजाएँगे उन्हें

अपने दीवानखाने में

मूर्तियाँ बनाकर

जैसे पेड़ों को छीलकर

बना डालीं फाइलें

और प्रेमपत्र।‘

- बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

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Comment by रविकर on September 4, 2013 at 4:37pm

गजब है हाथी की चिग्घाड़ -
प्रेम पत्र / फ़ाइल को लताड़-


शुभकामनायें आदरणीय-


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 4, 2013 at 3:37pm

बहुत खूबसूरत सुप्रवाहित अभिव्यक्ति और सार्थक कथ्य 

हार्दिक बधाई आ० बृजेश जी 

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 1:33pm

आदरणीय निकोर साहब, आपको हार्दिक आभार! 

Comment by vijay nikore on September 4, 2013 at 1:11pm

कुछ ही शब्दों में आपने कितना कुछ कह लिया। अच्छी रचना के लिए साधुवाद।

सादर,

विजय निकोर

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 10:26am

आदरणीय श्याम नारायण जी आपका आभार!

Comment by Shyam Narain Verma on September 4, 2013 at 10:23am
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.
Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 10:11am

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 10:10am

आदरणीय बागी जी आपका हार्दिक आभार! आपको रचना अच्छी लगी, मेरा प्रयास सफल हुआ।
सादर!

Comment by Meena Pathak on September 4, 2013 at 9:12am

बहुत सुन्दर कविता .... बहुत बहुत बधाई आप को आ० बृजेश जी


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 4, 2013 at 9:00am

उफ्फ !! बृजेश भाई आजाद कविता में आप बहुत ही बढ़िया दखल रखते हैं, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें । 

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