आईने में एक प्रतिबिम्ब
 खड़ा है मौन !
 आँखों के पीछे से 
 आवाज आई - कौन ?
है कौन यह अपरिचित?
 क्या है यह अपना मीत ? 
 यह कैसी है संवेदना?
 यह किसकी है सदा ?
 क्या कहीं ढह गई..
 जन्मांतर की भीत ?
किससे मिलने को
 मैं हूँ आमादा ?
 क्यों है हृदय मेरा 
 इतना द्रवित ?
सदियों से जीवित यह आत्मा, कभी-कभी इस शरीर की सांसारिक पूर्णता से विमुख होकर कुछ ढूँढती है ! क्या उसे कोई पुरानी कड़ी याद आती है ?
Comment
आदरणीया अन्वेषा जी:
अति सुन्दर आध्यात्मिक अभिव्यक्ति।
शत-शत बधाई आपको,
ऐसा ही और भी लिखिए!
सस्नेह और सादर, बहन।
विजय निकोर
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