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ब्रज मां होली खेले मुरारी अवध मां रघुराई

मेरा संदेसा पिया को दे जो जाने पीर पराई

 

 

कोयल को अमराई मिली कीटों को उपवन

मैं अभागिन ऐसी रही आया न मेरा साजन

 

लाल पहनू , नीली पहनू,  हरी हो  या वसंती

पुष्पों की माला भी तन मन शूल ऐसे  चुभती

 

 

सूनी गलियां सूना  उपवन सूना सूना संसार है

मैं बिरहिन यहाँ तड़फूं कैसा तेरा ये  प्यार है

 

प्रियतम भेजी कितनी पाती तेरी याद सताती है 

मैं तो दूजे  घर  की बेटी माटी की याद न आती है 

 

अब तो आजा बिखर चुकी हूँ लगता सब बेकार है

अब न आया तो फिर न मिलूंगी जीवन धिक्कार है

प्रदीप  कुमार सिंह कुशवाहा  

 

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Comment

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 15, 2012 at 11:02am

snehi संदीप  ji. सादर abhivadan

aapko pasand aaya. is hetu aap ko badhai. 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 15, 2012 at 11:00am

snehi rakesh  ji. शुभाशीष. 

aapko pasand aaya. is hetu aap ko badhai. 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 15, 2012 at 10:59am

snehi  mahima ji. शुभाशीष. 

aapko pasand aaya. is hetu aap ko badhai. 
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 15, 2012 at 5:59am
अब तो आजा बिखर चुकी हूँ ....... 
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on March 15, 2012 at 5:58am
अब तो आजा बिखर चुकी हूँ ....... 

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 14, 2012 at 2:23pm

सूनी गलियां सूना  उपवन सूना सूना संसार है

मैं बिरहिन यहाँ  तडपू कैसा तेरा ये  प्यार है   


बहुत खूब आदरणीय प्रदीप जी, अच्छी रचना , नायिका की बिरह बेदना को आपने स्वर दे दिया है, बधाई स्वीकार करें ।



Comment by Abhinav Arun on March 14, 2012 at 1:50pm

आदरणीय श्री प्रदीप जी बहुत सरल सहज अंदाज़ में मन की कहती रचना | सही है एक बिरहन से ही पूछिये इन मौसमों त्योहारों में क्या गुज़रती है -

सूनी गलियां सूना  उपवन सूना सूना संसार है

मैं बिरहिन यहाँ तड़फूं कैसा तेरा ये  प्यार है

इस "तड़फूं"का जवाब नहीं !! वाह !!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 14, 2012 at 12:23pm

होली और विरह को लेकर बहुत सी रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं किन्तु आपकी इस रचना में एक नयापन झलक रहा है| राकेश जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ| बधाई स्वीकार करें आदरणीय प्रदीप जी|

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 14, 2012 at 10:31am

आदरणीय प्रदीप जी, सादर नमस्कार. बहुत खूब, आपने कई लोगो की विरह वेदना को छदो मे पिरो दिया है, बधाई बधाई.

Comment by MAHIMA SHREE on March 14, 2012 at 10:21am
अब तो आजा बिखर चुकी हूँ लगता सब बेकार है
अब न आया तो फिर न मिलूंगी जीवन धिक्कार है

आदरणीय सर ,
प्रणाम ...विरह की सुंदर अभिवयक्ति .....बधाई स्वीकार करे...

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