221 2122 221 2122
1
दरिया है आँसुओं का कूचे में बेवफ़ा के
जाना वहाँ से यारा दामन ज़रा बचा के
2
इक बात ये बता दे मेरे हसीन क़ातिल
लेता है जान कैसे तू यार मुस्कुरा के
3
पूछेगी इक न इक दिन तुमसे भी ज़िन्दगानी
हासिल हुआ तुम्हें क्या ईमान को गँवा के
4
उल्फ़त की वादियों से रूठे रहेंगे कब तक
देखें तो आप इक दिन दिल इनसे भी लगा के
5
पूछा है आसमाँ से कल रात छत पे आ कर
जीता है किस तरह वो उजली शुआ छिपा के
6
साबित ज़रूर होगी अपनी भी बेगुनाही
रखले हज़ार ताले चाहे तो तू लगा के
7
उसका पता बता दे ओ ज़िन्दगी के मालिक
जो दूर जा बसा है मेरी धड़कनें चुरा के
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'लेता है जान कैसे तू यार मुस्कुरा के'
इस मिसरे को यूँ कहना उचित होगा:-
'लेता है जाँ हमारी तू कैसे मुस्कुरा के'
'जीता है किस तरह वो उजली शुआ छिपा के'
इस मिसरे में सहीह शब्द है 'शुआ'अ' 121 देखियेगा ।
'जो दूर जा बसा है मेरी धड़कनें चुरा के'
ये मिसरा बह्र से ख़ारिज है,देखियेगा ।
आ. रचना बहन, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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