ज्यों खटक जाता है
किसी चित्रकार को
 स्वरचित सफल चित्र पर
 अचानक रंगो का बिखर 
जाना !
.
ज्यों खटक जाता है 
 ज्येष्ठी धूप में तपे प्यासे मानव को 
 सम्मुख आ सजल पात्र का 
 अकस्मात ही लुढ़क जाना !.
ज्यों खटक जाता है
प्रणयी युगल को 
 मधुर प्रणय मिलन 
के मध्य 
 किसी अन्य का 
 अप्रत्याशित आ जाना !
 .
 त्यों ही खटक रहा है मुझको 
 शरद्पूर्णिमा के चंद्र पर 
 निगोड़े मेघो का छा जाना !! 
 
 मौलिक& अप्रकाशित 
 ---नन्दकिशोर दुबे
Comment
वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर रचना सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से अपने भाव रचना में पिरोये बहुत बहुत बधाई आद० नंदकिशोर जी
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