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अतुकांत - समय को भी तो एक दिन बूढ़ा होना है -- गिरिराज भंडारी

वो ममता मयी छुवन हो

जो माँ की कोख से निकलते ही मिली

या हो उसी गोद की जीवन दायनी हरारत

या

तुम्हारी उंगलियों को थामे ,

चलना सिखाते 

पिता की मज़बूत, ज़िम्मेदार हथेली हो

या हो

जमाने की भाग दौड़ से दूर , निश्चिंत

कलुषहीन  हृदय से

धमा चौकड़ी मचाते , गिरते गिराते , खेलते कूदते

बच्चे

या फिर स्कूलों कालेजों की किशोरा वस्था की निर्दोष मौज मस्तियाँ

 

या हो वो जवानी में पारिवारिक , सामाजिक ज़िम्मेदारियों स्वीकारते ,जूझते मज़बूत कान्धे

सब कुछ तो बिना मांगे दिया है

उसी समय ने, सभी को

और स्वीकार किया सभी ने आनंद के साथ

 

उसी समय ने ,

जिसने आज लगा दी है सफेदी तुम्हारे बालों पर

खींच दी है आड़ी तिरछी रेखायें

अनुभवों की

तुम्हारी शक़्ल से ले कर तमाम जिस्म में

नज़र कमज़ोर् , झुकी कमर , थरथराती ऊँगलियाँ

 

चढ़ता सूरज भी तो डूब ही जाता है , एक समय

फिर क्यों मुश्किल है स्वीकार पाना

ख़ुद का डूब जाना,

या कहूँ , स्वीकार कर पाना समय की सच्चाई को  

और फिर ,

समय को भी तो एक दिन बूढ़ा होना है

चुक जाना है , विलीन हो जाना है

उसी शून्य में

जिसमें विलीन हो मिलती है सभी को

एक नई शुरुवात ॥

***********************

मौलिक एअवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:18am

आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:17am

आदरणीया राजेश जी . रचना के मूल भावना तक पहुँच के सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:16am

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपने सही कहा , रचना की सराहना के लिये आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:15am

आदरणीया प्रतिभा जी , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:14am

आदरणीया कांता जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:14am

आदरणीय समर भाई , आपने अतुकांत कविता मे हमेशा मेरी हौसला अफ्ज़ाई की है , आपका तहे दिल से शुक्रिया इस मुहब्बत के लिये ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 29, 2015 at 6:12am

आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani  भाई , इस वैचारिक रचना की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 1:51pm

आदरणीय गिरिराज सर, इस गहन प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

जन्म से ही अंतिम सत्य का भान होता है फिर भी कवायद चलती है जिसका नाम जीवन है मगर उसके बाद विलीन होकर एक नई शुरुआत भी नियत है. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 27, 2015 at 9:02pm

जीवन की ये वो सच्चाई है जिसे हम स्वीकारना नहीं चाहते या यूं कहिये की स्वीकारते हुए डरते हैं हाँ सच हम डरते हैं दर्पण कभी झूट  नहीं बोलता मगर हम ये भी चाहते हैं की वो झूट  ही बोल दे मगर क्या फायदा वक़्त को भी तो बूढा  होना है फिर नई पारी की शुरुआत करनी है अनुभव युक्त भावनाओं को जीती प्रस्तुति दिल छू गई आदरणीय गिरिराज जी दिल से बधाई लीजिये |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 27, 2015 at 8:32pm

प्रौढ़ अवस्था कहें या वृद्धावस्था --अपने खुद के रीतने की कशिश ऐसे ही भावों को प्रतिफलित करती है , सुन्दरता केसाथ .

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