आँखों देखी - 17 ‘और नहीं बेटा, बहुत हो गया’
     मैं ग्रुबर कैम्प के उस अद्भुत अनुभव की यादों में खो गया था. हमारा हेलिकॉप्टर कब आईस शेल्फ़ के 100 कि.मी. चौड़े सन्नाटे को पार करने के बाद शिर्माकर ओएसिस को भी पीछे छोड़ चुका था, मुझे पता ही नहीं चला. अचानक जब धुँधली खिड़की से वॉल्थट पर्वतमाला की दूर तक विस्तृत श्रृंखला नज़र के सामने उभर आयी मैं वर्तमान में वापस आ गया. ग्रुबर आज हमारी बाँयी ओर पूर्व दिशा में था. हमारा लक्ष्य था पीटरमैन रेंज के उत्तरी सिरे में बोल्डरों से पटा हुआ एक हिमनदीय मैदान जहाँ एक साल पहले ही हमने नारंगी रंग से एक अस्थायी हेलिपैड चिह्नित किया था (यह ग्रुबर के हेलिपैड से अलग था जिसका वर्णन आँखों देखी 16 में है). कुछ ही समय में जी.पी.एस. यंत्र की सहायता लेकर हम उस क्षेत्र में पहुँच गए और भारतीय वायुसेना का विशाल हेलिकॉप्टर सकुशल वहाँ उतर गया.
एक बार फिर से वॉल्थट पर्वतमाला के बीच वापस आकर मुझे रोमांच हो रहा था. आठ भूवैज्ञानिकों का हमारा बड़ा दल था जिसमें हम तीन लोग ऐसे थे जिन्हें पिछले साल ग्रुबर में काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. मनोरम लेकिन बेहद एकाकीपन के आभास से संपृक्त पृथ्वी के इस वीरान कोने में आकर मेरे अन्य साथियों के मन में क्या प्रश्न उठ रहे थे यह कहना मुश्किल है फिर भी उनकी लम्बी नीरवता और दूर तक जाती दृष्टि बहुत कुछ कह रही थी.
मौसम बहुत अच्छा था. इस वर्ष प्रयोग के तौर पर भारत के रक्षा अनुसंधान विकास संस्थान (डी.आर.डी.ओ.) द्वारा अभिकल्पित दो नॉक-डाऊन कंटेनर विशेष रूप से हमारे कैम्प के लिए भेजे गए थे. हम आठ भूवैज्ञानिक और हेलिकॉप्टर के साथ आए वायुसेना के अधिकारियों के अतिरिक्त भारतीय सेना के इंजीनियर की अगुआनी में एक सहायता दल (लॉजिस्टिक टीम) भी साथ था. हेलिकॉप्टर से उतरते ही इस दल ने कंटेनर जहाँ लगने थे उस क्षेत्र का निरीक्षण किया. कुछ बड़े बोल्डर आदि हटाकर जगह बनाई गयी और फिर हम सब लोगों ने मिलकर हेलिकॉप्टर से सामान उतारना शुरु किया. वायुसेना और सेना के अधिकारियों से लेकर डॉक्टर, जवान और पदस्थ वैज्ञानिक सभी एक साथ बोझ उठा रहे थे – यह अंटार्कटिका अभियान की विशेषता है. वहाँ कभी कोई कुली के तौर पर नहीं जाता है – हर सदस्य अपनी किसी न किसी तकनीकी विशेषता/अनुभव के कारण ही अंटार्कटिका अभियान के लिए चुना जाता है. अत: जो भी शारीरिक श्रम है उसे सब मिल बाँट कर करते हैं.
8’ x 8’ x 8’ के ये कंटेनर विशेष प्रकार के प्लाई से बने थे. इनके दीवारों को दो प्लाई के बीच पॉलीयूरिथीन फ़ोम से भरा गया था. इस फ़ोम का उद्देश्य था बाहर के ठण्डे वातावरण से अंदर की हवा को पृथक करना. धातु के बने फ़्रेम पर उसी प्रकार के प्लाई डालकर फ़र्श बनाया गया था तथा कंटेनर में आने-जाने के लिए एक दरवाज़ा और एक छोटा सा सील किया हुआ रोशनदान था. हम लोगों ने कंटेनर के फ़र्श और दीवारों को जो नॉक-डाऊन हालत में अलग करके लाए गए थे, हेलिकॉप्टर से उतारा और बोल्डरों के ऊपर से होते हुए उन्हें चिह्नित जगह पर पहुँचाया. फिर इन्हें जोड़कर दो कंटेनर बनाए गए. हर एक को चारों कोनों से नायलॉन के चौड़े पट्टे द्वारा बाँधकर उनके दूसरे सिरे को ज़मीन में गड़े हुए कील के साथ रोककर सुरक्षित किया गया. यह सावधानी अंटार्कटिका के तेज़ हवा को ध्यान में रखते हुए बरती गयी थी.
     लगभग सात-आठ घंटे की कड़ी मेहनत के बाद हमारा कैम्प तैयार था. संचार व्यवस्था चालू की गयी जिससे हमारा सम्पर्क मैत्री कैम्प तथा जहाज़ के साथ लगातार बना रहे. भोजन सामग्री, गैस चूल्हा आदि सजाकर एक बड़ी गृहस्थी ही बसा ली गयी. दो कंटेनर के अतिरिक्त इस बार एक नए प्रकार का टेन्ट भी आया था. यह हवा से फुलाकर लगाने वाला एक बहुत ही हल्के वजन का टेन्ट था जिसे पैर से चलाने वाले छोटे से हाईड्रॉलिक पम्प द्वारा फुलाकर साईकल के ट्यूब की तरह वॉल्व से बंद कर दिया जाता था. यही हवा कंटेनर के पी.यू. फ़ोम की तरह टेन्ट के अन्दर की गर्मी को बाहर के ठण्डे वातावरण से अलग करती थी. सबसे अच्छी बात यह थी कि इस टेन्ट के बीच में अल्यूमिनियम का एकमात्र मुड़ा हुआ पोल था तथा 130 कि.मी. प्रति घण्टा की गति तक के हवा के वार को सह सकता था.
हमारे साथ लम्बे प्रवास के लिए जो सामग्री आयी थी उन्हें हमने एक कंटेनर में डाल दिया. कुछ भारी चीज़ों को बाहर रखकर उन्हें नायलॉन की रस्सी या चौड़े पट्टों से सुरक्षित किया गया जिससे वे हवा में उड़ न जाएँ. थोड़ी देर के लिए हम सोच में पड़ गए कि आईसक्रीम के जो पैकेट ले गए थे उन्हें कहाँ रखा जाए क्योंकि कंटेनर के अंदर वे निश्चित रूप से गल जाते. फिर समाधान सामने ही दिखा. थोड़ी ही दूर पर ग्लेशियर की बर्फ़ में गड्ढा खोदकर आईसक्रीम का एक बड़ा भण्डार हमने रखा और उस गर्त को फिर बर्फ़ से ढँक दिया. पहचान के लिए हमने उसके ऊपर आईस ऐक्स लगाया. जिस कंटेनर को हमने भण्डार बनाया था उसी के एक कोने में किचन बना. दूसरे कंटेनर में हम कुछ लोग थे और बाकी छह लोग नए टेन्ट में. रात में तेज़ हवा से नायलॉन के पट्टे इतनी ज़ोर से हिल रहे थे कि उस शोर में सोना नामुमकिन था. फिर रोशनदान से रात का चमकता सूरज अपनी किरणें बिखेर रहा था. जब हवा की गति कुछ धीमी हुई तो बाहर निकलकर टेन्ट के अंदर सोए अपने साथियों का हाल-चाल लेने मैं निकल पड़ा. देखा कि टेन्ट पूरी तरह ज़मीन पर चित पड़ा है अर्थात किसी समय हवा की गति 130 कि.मी. प्रति घण्टा की सहन सीमा को पार कर गयी थी और टेन्ट धराशायी हो गया था लेकिन बहुत मजबूती से ज़मीन के साथ बँधे रहने के कारण वह उड़ा नहीं था. और....हाँ....उसके अंदर हमारे छह साथी आराम से सो रहे थे. बाद में उन्होंने कहा था कि तूफ़ान के समय वे जगे थे लेकिन बेहद ठण्ड और तेज़ हवा से बचने के लिए वे अपने स्लीपिंग बैग से नहीं निकले थे.
पीटरमैन कैम्प में रहकर हम लोगों ने एक बड़े क्षेत्र का भूवैज्ञानिक मानचित्रण किया जो बाद के वर्षों में शोधकार्यों का आधार बना. लगभग तीन सप्ताह बाद हम जहाज़ में वापस गए और पहला काम किया जमकर नहा के कपड़े बदलना. तीन सप्ताह में पहली बार नहाने का आनंद क्या होता है वह केवल वही जानते हैं जो इन मजबूरियों से गुज़र चुके हैं.
छठे अभियान के बाकी समय में और भी बहुत से काम किए गए. अंतत: फ़रवरी के अंत अथवा सम्भवत: मार्च 1987 की शुरुआत में तीसरे शीतकालीन दल के हम चौदह सदस्य और छठे ग्रीष्मकालीन दल के सदस्य, दक्षिण गंगोत्री में नए दल को एक वर्ष के लिए छोड़कर घर की ओर चल पड़े. सोलह महीनों से अंटार्कटिका में रहकर ऐसा लगाव हो गया था कि कोहरे के पीछे ओझल होते आईस शेल्फ़ को देखते हुए आँखें नम हो आयीं. तभी मैंने फिर वहाँ वापस जाने का संकल्प लिया था.
इस बार मॉरीशस में हमारा जहाज़ काफ़ी समय के लिए रुका और हम सबको वहाँ उतरकर द्वीप घूमने की अनुमति मिली. जब हमने बंदरगाह में जहाज़ से उतरकर क़दम रखे तो विचित्र अनुभूति हुई. सोलह महीने बाद किसी पक्की सड़क पर हमने पैर रखे थे. सोलह महीने बाद “ट्रैफ़िक” से बचकर चलने पर हम मजबूर हो रहे थे और सोलह महीने बाद वृक्ष, हरी घास, रंगीन फूल देख रहे थे स्वाभाविक परिवेश में. हम लोग जो शीतकालीन दल के सदस्य थे, आँखें फाड़े नज़ारा देख रहे थे और चिरपरिचित दृश्यों से नए सिरे से एकात्म होने का प्रयास कर रहे थे. हमारे उस प्रयास में हमारे चेहरों पर जो भाव उभरे थे उनमें कहीं कुछ था क्योंकि मॉरीशस के स्थानीय स्त्री और पुरुष तथा विदेशी पर्यटक सभी हमें घूरकर देख रहे थे. थोड़ा समय लगा इन सबसे मानसिक समझौता करने में. फिर मॉरीशस से मैं ऐसा घुल-मिल गया कि मात्र 12 लाख जनसंख्या वाले इस द्वीप ने मेरे जीवन की दिशा ही बदल डाली.
नौ दिन बाद नौसैनिक बैण्ड के जयघोष के बीच गोआ के मॉर्मुगाओ बंदरगाह पर जब हमारा जहाज़ पहुँचा बड़ी संख्या में लोगों ने जिनमें भारत सरकार के उच्च पदाधिकारियों से लेकर हमारे परिवार के सदस्य शामिल थे, हमारा स्वागत किया. मेरे जीवन के एक अनमोल अध्याय की समाप्ति हुई. मेरी माँ ने मुझसे कहा था ‘और नहीं बेटा, बहुत हो गया’…….लेकिन.......नियति ने कुछ और ही सोच रखा था मेरे लिए......
(मौलिक तथा अप्रकाशित सत्य घटना)
Comment
इस कड़ी को पढ़ते समय स्कूल के कोर्स की किताब में पढ़ी कविता नर हो न निराश करो मन को..  की याद हो आयी. 
आप सभी में जिजीविषा की एक अलग ही डिग्री महसूस होती है. सोलह महीनों के बाद शस्य श्यामल धरती से भेंट  कितनी मनोहारी हो सकती है इसका रोचक वर्णन हुआ है. 
आपकी संस्मरण-कड़ियों में रोचकता बनी है. बहुत-बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीय शरदेन्दुजी.  
सादर
बहुत ही रोचक घटना का सजीव चित्रण लेख के माध्यम से आपने साझा किया, हार्दिक बधाई आदरणीय शरदिंदु सर
अत्यंत रोचक इस लेख के लिए\ तहे दिल बधाई सादर
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