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हमारे ज़माने में माएं

मैं कैसे बताऊँ बिटिया
हमारे ज़माने में माँ कैसी होती थी

तब अब्बू किसी तानाशाह के ओहदे पर बैठते थे
तब अब्बू के नाम से कांपते थे बच्चे
और माएं बारहा अब्बू की मार-डांट से हमें बचाती थीं
हमारी छोटी-मोटी गलतियां अब्बू से छिपा लेती थीं
हमारे बचपन की सबसे सुरक्षित दोस्त हुआ करती थीं माँ

हमारी राजदार हुआ करती थीं वो
इधर-उधर से बचाकर रखती थीं पैसे
और गुपचुप देती थी पैसे सिनेमा, सर्कस के लिए

अब्बू से हम सीधे कोई फरमाइश नही कर सकते थे
माँ हुआ करती थीं मध्यस्थ हमारी
जो हमारी ज़रूरतों के लिए दरख्वास्त लगाती थीं

अपनी थाली में बची सब्जियां और रोटी लेकर
जब वो खाने बैठती तो हम भरपेटे बच्चे
एक निवाले की आस लिए टपक पड़ते
इसी एक निवाले ने हमें सिखाया
हर सब्जी के स्वाद का मज़ा...

तुम लोगों की तरह हम कभी कह नही सकते थे
कि हमे भिन्डी नही पसंद है
कि बैगन कोई खाने की चीज़ है

हमारे ज़माने की माएं
सबके सोने के बाद सोती थीं
सबके उठने से पहले उठ जाती थीं
और सबकी पसंद-नापसंद का रखती थीं ख्याल
कि तब परिवार बहुत बड़े हुआ करते थे
कि तब माएं किसी मशीन की तरह काम में जुटी रहती थीं
कि तब माएं सिर्फ बच्चों की माएं हुआ करती थीं..........

मैं कैसे समझाऊं बिटिया
हमारे ज़माने में माएं कैसी होती थीं....

(मौलिक अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 2:49am

अंत तक आते-आते पंक्तियाँ भावप्रधान हो गयी हैं. लेकिन खेद है सर, कविता नहीं हो पायी है ये प्रस्तुति.

Comment by anwar suhail on October 2, 2013 at 8:56pm

इस कविता के माध्यम से मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि तब की माएं बच्चो को परीक्षा में उच्चतम अंक पाने की मशीन नही समझती थीं...वे चाहती थीं कि बच्चे खूब खुश रहें..स्वस्थ रहें और मस्त रहें...

और आजकल के इस प्रतिस्पर्धा युग में माएं बच्चों के ९८ मार्क्स पाने से खुश नही होतीं, बल्कि बच्चे से पूछती हैं कि दो नंबर कम क्यों आये....

Comment by विजय मिश्र on October 1, 2013 at 12:39pm
"हू ब हू ऐसी ही हुआ करती थी माँ " -सुहैल भाई ,दिल खोलकर रख दिया है आपने अपने जमाने की माँ को | कहीं भी कुछ भी छोड़ा नहीं है माँ की तस्वीर बनाने में , नाक-नक्स सब काएदे से रखा | कितनी मशगुल रहतीं थी हममे जैसे हमसे फारीग और फाजिल उनकी और कोई दुनियाँ ही न हो . माँ मुकम्मल माँ होतीं थीं और कुछ भी नहीं. ढ़ेरों शुक्रियादा अदा करता हूँ इस प्यारी सी अम्मी और खुर्राट अब्बा को जेहन में कुरेदने के लिए .
Comment by Meena Pathak on September 30, 2013 at 6:24pm

aब भी वैसी ही हैं माँयें मशीन की तरह ... सुन्दर रचना हेतु बधाई 

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 30, 2013 at 3:52pm

बीत गए वो पल पुराने , कैसे सुनाऊं अब वो तराने ? शुभकामनाये आपको !

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