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चमका जैसे कोई तारा ,

हलचल जैसे दूर किनारा ,

निर्मल शीतल गंगा की धारा ,

व्यग्र व्यथित बादल आवारा , बांधना चाहूं पल दो पल ,

तुम............................

दूर-दूर तक धँसी सघन ,

प्रफ्फुलित मन कंपित सी धड़कन ,

घना कोहरा शुन्य जतन ,

बस समय सहारा टूटे ना भ्रम ,

थामना चाहूं कोई हलचल ,

तुम................................

धूप उतरे कहीं पेड़ों से ,

सुकून जैसे बारिश की रिमझिम ,

जैसे भूला कुछ याद आया ,

मन कभी खुश कभी भर आया ,

कना चाहू खुद को व्याकुल ,

तुम................................

बंद मुट्ठी ना खुलने तक ,

अंतर मन मे जकड़ी भरकस ,

एक कशिश एक ठहरी कसक ,

सुबह से रात , रात से सुबह ,

होना चाहूं आतुर आकुल ,

तुम..................................

अश्क                        

"मौलिक व अप्रकाशित"

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 18, 2013 at 2:24am

आपकी प्रस्तुत रचना में एक संवेदनशील पाठक अति वेगवती घुर्णन को स्पष्टता से महसूस कर सकता है. इस घुर्णन के भँवर में कई-कई भाव गोते लगाते प्रतीत हुए जो वापस न आ कर रचना का अप्रच्छन्न भाग हो गये दीखते हैं.

प्रस्तुत रचना के लिए सादर बधाई, आदरणीय अशोक कत्याल अश्क जी.

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 12, 2013 at 11:04pm

सुन्दर अभिव्यक्ति.

Comment by ram shiromani pathak on April 9, 2013 at 7:31pm

आदरणीय बहोत ही सुन्दर  रचना है !हार्दिक बधाई 

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