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दुनिया बहुत मतलबी है
एक दोस्त की तलाश में
कदम-कदम पर खाया है धोखा
गिर-गिर कर संभला हूं
कैसे करूं यकीन अब तुझ पर
अब तो खुद से ही लगता है डर
कही मैं भी तो मतलबी नहीं
सोचता हूं जब एकांत में
समझ आता है कुछ-कुछ
मैं भी हूं मतलबी
क्योंकि मतलबी दुनिया में
मैं कोई खुदा तो नहीं
आखिर हूं इंसान ही
इस दुनिया का एक अंग
फिर कैसे हो सकता हूं जुदा
दुनिया के मतलबी रंग से
बेकार में ही दोष देता हूं
सबसे बड़ा दोषी तो मैं ही हूं
जो ढूंढ़ता हूं दुनिया में
अपने मतलब का दोस्त
क्योंकि मैं मतलबी हूं

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Comment by MAHIMA SHREE on March 23, 2012 at 2:45pm
मैं भी हूं मतलबी
क्योंकि मतलबी दुनिया में
मैं कोई खुदा तो नहीं
आखिर हूं इंसान ही....
नमस्कार हरीश जी...
सत्य कहा आपने.....मन में विचरते भावों का अच्छा चित्रण.... हम सभी इन चीजो से कभी न कभी गुजरते है...बधाई आपको...
Comment by वीनस केसरी on March 23, 2012 at 1:32pm

ऐसी मतलब परस्ती को सलाम

इस तरह हर आदमी को मतलबी होना चाहिए
मानवता में नया निखार आ जायेगा

बधाई
सादर

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 23, 2012 at 11:45am

आदरणीय हरीश जी,

मतलब को केन्द्र बना कर सामाजिक परिवेश में व्याप्त दुरूह स्थितियों का सटीक वर्णन किया आपने| हार्दिक बधाई!

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on March 23, 2012 at 10:06am

कही मैं भी तो मतलबी नहीं
सोचता हूं जब एकांत में

हरीश सर गहन दर्शन के भाव समाविष्ट करती रचना पर बधाई स्वीकार करें

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 22, 2012 at 5:25pm

vastvikta darshati rachna. badhai swikar karen mahoday ji, sadar

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