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मेरी भी समस्या का कोई तो समाधान हो

प्रभु!  नभ-जल-थल में तुम्हारा गुणगान हो,

तुमसे छुपाऊँ क्यों, तुम सर्वव्यापिमान हो! 

कैसे मैं कमाई करूँ, मुझे भी तो ज्ञान हो,

मेरी भी समस्या का कोई तो समाधान हो!

 

नियत, हैसियत प्रभु मेरी तुम जानो वैसे,

माल-असबाब यहाँ खा रहे है कैसे कैसे!

चौखट में आया तेरी, वादा चढ़ावे का ले के,

मेरी भी तो नैया तारो, 'राजा', 'कलमाड़ी, जैसे!

 

मेरी भी तो 'राडिया' से जान- पहचान हो,

मेरी भी समस्या का कोई तो समाधान हो!

 

छोटी-छोटी बातों में ये कितना बवाल है,

सवाल में जबाब है जबाब में सवाल है!

भारत के जन अब जान गए सबकुछ,

और नहीं कोई ये बापू के हीरालाल है!

 

मेरी भी तो हैसियत इनके समान हो,

मेरी भी समस्या का कोई तो समाधान हो!

 

मुझे भी दलाली मिले तोपों और टेंक में,

सत्ता चाहे जो भी हो, तरक्की होवे रेंक में!

देश-दुनिया से क्या है लेना और देना मुझे,

बस एक खाता मेरा होवे स्विस बैंक में!

 

लुटियन की दिल्ली में मकान आलीशान हो,

मेरी भी समस्या का कोई तो समाधान हो! 

 

होलीवूड, बोलीवूड, क्रिकेट हो या सट्टेबाजी

मकान, दुकान या हो जमीन की सौदेबाजी!

हिस्सेदारी मुझे बस मिलती रहे बराबर,

फैसले बदल जाएँ अगर हो मेरी नाराजी!

 

सुरा-सुन्दरियो संग मेरा जलपान हो,

मेरी भी समस्या का कोई तो समाधान हो!

                    "सुभाष"

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Comment

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Comment by Subhash Trehan on September 26, 2011 at 12:07pm

गणेश जी, अगर मेरी ये छोटी सी व्यंग्यात्मक कविता आप जैसे प्रबुद्ध लोगों के पढने लायक बन पडी हो तो मेरा लिखना सार्थक हुआ। बधाई के लिए शुक्रिया।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 24, 2011 at 4:41pm

सुभाष त्रेहान जी, व्यंग्यात्मक शैली में रची इस काव्य कृति की जितनी तारीफ़ किया जाय कम है, आपने वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ सम सामयिक रूप देकर रचना में जान डाल दिया है, बधाई स्वीकार कीजिये | आगे भी आपकी रचनाओं का इन्तजार रहेगा |

Comment by Subhash Trehan on September 23, 2011 at 4:05pm

आशीष जी, आपने सराहा, इसके लिए शुक्रिया।

Comment by आशीष यादव on September 23, 2011 at 3:56pm

मै एक अनभिज्ञ हूँ, लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है शायद यही व्यंगात्मक शैली की रचना होती है| शिल्प, शब्द एवं भाव हर तरफ से गहराई भर दिया है आपने| एक उत्तम रचना है यह| मुझे ख़ुशी हुई की इतनी सुन्दर रचना हमें पढने को मिली|


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 23, 2011 at 2:26pm

हा हा हा ..

भाई सुभाषजी, आपका हार्दिक धन्यवाद.

Comment by Subhash Trehan on September 23, 2011 at 2:21pm

सौरभजी सच कहूँ, मेरी मंशा तो मात्र इतनी सी थी, कि अगर ये लोग ऐसा कर सकते हैं तो कम से कम सोच तो हम भी सकते हैं।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 23, 2011 at 1:29pm

भाई सुभाष त्रेहानजी,  मैंने आपकी प्रस्तुति को सामान्य ढंग से ही ले कर देखना प्रारम्भ किया था.  कॉनफेस कर रहा हूँ, विश्वास है, आप बुरा नहीं मानेंगे. परन्तु,  तुरत ही प्रतीत होने लगा कि आपकी बेपरवाह-सी दीखती प्रस्तुत रचना की अंतर्धारा सामान्य कत्तई नहीं है. आपका सामान्य ज्ञान और आपकी पारखी दृष्टि प्रस्तुत रचना में जगह-जगह, या सही कहिये, प्रत्येक पंक्ति में, बखूबी उभर आयी है. 

आपने माननीय हीरालालजी, लॉर्ड ल्युटियन आदि का संदर्भ देकर रचना के स्तर को वाकई बहुत उठा दिया है. साथ ही, आज की राजनीतिक, सामाजिक विडंबनाओं और चर्चाओं को रचना में शामिल करके मुग्ध कर दिया है.

आपकी इस प्रस्तुति को मेरा हार्दिक अभिनन्दन.

 

Comment by Subhash Trehan on September 23, 2011 at 11:15am

धन्यवाद विक्रम, ये समस्या मेरी अकेले की नहीं तकरीबन एक अरब से भी उपर लोगों की है। कोशिश ये है कि जब समाधान हो तो सभी का हो।

Comment by Vikram Srivastava on September 21, 2011 at 3:36pm

वाह बहुत खूब......आपकी समस्या का समाधान हो जाये तो हमें भी बताइएगा | हुमारी भी कुछ ऐसी ही समस्याएँ हैं...:D

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