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जो समझता रहा कि है रब वो।

2122 1212 22

1

देख लो महज़ ख़ाक है अब वो।
जो समझता रहा कि है रब वो।।

2

हो जरूरत तो खोलता लब वो।
बात करता है बे सबब कब वो।।

3

उठ सकेगा नहीं कभी अब वो।
बोझ भारी तले गया दब वो।।

4

ज़िन्दगी क्या है तब समझ आया।
मौत से रू ब रू हुआ जब वो।।

5

वक़्त आया हुआ बुरा जिसका।
रोकने से भला रुका कब वो।।

6

गर जरूरत पड़ी दिखाएगा।
जानता है हरेक करतब वो।

7

बात समझा नहीं मुहब्बत की।
नफ़रतों से भरा लबालब वो।।

सुरेन्द्र इंसान

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Aazi Tamaam 3 hours ago

अच्छी ग़ज़ल हुई आदरणीय बधाई हो

3 बोझ भारी तले को सुधार की आवश्यकता है

Comment by surender insan 4 hours ago

आदरणीय सौरभ जी सादर नमस्कार जी। ग़ज़ल पर आने के लिए और अपना कीमती वक़्त देने के लिए आपका बहुत बहुत आभारी हूँ जी।।

आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ जी। बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

सादर।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2025 at 12:27pm

आदरणीय सुरेद्र इन्सान जी, आपकी प्रस्तुति के लिए बधाई। 

मतला प्रभावी हुआ है. अलबत्ता, ’महज’ को ’मह्ज’ लिखा जाना उचित होता. कि, उर्दू भाषा के लिहाज से इस शब्द का मात्रा भार २ १ है. 

एक बात् आअप और ध्यान में रखें. गजलों के मिसरे एक सीमा तक गद्यात्मक होते हैं. अच्छे अश’आर की यही पहचान है कि उसके उला-सानी के मिसरे गद्यात्मक हैं..

इस हिसाब से .. बोझ भारी तले गया दब वो .. बहुत सुगठित विन्यास प्रतीत नहीं होता. 

बहरहाल, एक अच्छी गजल के लिए हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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