हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है
पहचान छुपा के जीता है, पहचान में फिर भी आता है
दिल टूट गया है- मेरा था, आना न कोई समझाने को,
नुक़सान में अपने ख़ुश हूँ मैं, क्या और किसी का जाता है
संतोष सहज ही मिल जाए, तो कद्र नहीं होती इसकी,
संतोष की क़ीमत वो जाने, जो चैन गँवा कर पाता है
आज़ाद परिंदे पिंजरे में, जी पाएँ न पाएँ क्या मालूम,
जो धार से पीते है उनको, कासे का पिया कब भाता है।
हर बार बहाना करते हो, हर बार मुझे झुठलाते हो
पर शहर से मेरे गुज़रो तुम, तो मुझको पता चल जाता है।
पर्वत भी मिलेगा सागर में, सूरज भी कभी होगा ठण्डा,
हस्ती तो तेरी फिर है ही क्या, क्या सोच के तू इतराता है।
क्यों दोष किसी को देते हैं, क्यों नाम किसी का लेते हैं,
जिस सूत ने हम को जकड़ा है, वो सूत हमीं ने काता है।
#मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
अपने प्रेरक शब्दों से उत्साहवर्धन करने के लिए आभार आदरणीय सौरभ जी। आप ने न केवल समालोचनात्मक प्रतिक्रिया दी है अपितु सुधार के प्रति जागरूक भी किया है।
सतत धन्यवाद
सोलह गाफ की मात्रिक बहर में निबद्ध आपकी प्रस्तुति के कई शेर अच्छे हुए हैं, आदरणीय अजय अजेय जी. बधाइयाँ
वैसे कुछ पर और काम करने की आवश्यकता है, बहर की विशेषता के लिहाज से भी और कथ्य के लिहाज से भी
इस बहर की विशेषता ही है, सप्रवाह वाचन. जो न केवल शब्दों की मात्रिकता या विन्यास के माध्यम से साधा जाता है, बल्कि सप्रवाह वाचन को प्रयुक्त शब्दों के वर्ण-संयोजन से भी निभाया जाता है. इस पक्ष को लगातार दीर्घकालिक अभ्यास कर ही साधा जा सकता है. तभी गजलों ही नहीं, बल्कि सभी गेय रचनाओं का सांगीतिक पक्ष प्रशस्त होता है.
कथ्य पर काम करने से मेरा आशय कि उनके भाव सुगढ़ अर्थ में शाब्दिक किये जायँ. इनको लेकर आदरणीय नीलेश जी ने अपनी बात रखी भी है, तो कुछ को लेकर इशारा भी किया है.
दिल टूट गया है- मेरा था, आना न कोई समझाने को .... ना ना.. यह मिसरा किसी तौर पर स्वीकार्य नहीं होगा, आदरणीय. विशेषकर मात्रिक बहर की गजल का मिसरा हो.
क्यों दोष किसी को देते हैं, क्यों नाम किसी का लेते हैं,
जिस सूत ने हम को बाँधा है, वो सूत हमीं ने काता है .. इस शेर में हल्के परिवर्तन के साथ वाह वाह कह रहा हूँ, बहुत खूब !
वैसे, संतोष वाले शेर पर मेरा मत आ० नीलेश भाई के मत से भिन्न है. बशर्ते संतोष को चैन ही रहने दिया जाए. ताकि वे दो इकाइयों का भ्रम न देने लगें. संभवतः ऐसा आ० नीलेश जी के साथ भी हुआ हो तो आश्चर्य न होगा. वस्तुतः संतोष/ चैन की कीमत वही जान सकता है जो इसे गँवा कर पाता है.
इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ
शुभ-शुभ
आदरणीय नीलेश जी, ग़ज़ल पर आने और अपनी बहुमूल्य सलाह देने के लिए आपका आभार। आपके सुझाव उपयोगी हैं और इनको ध्यान में रखकर ग़ज़ल में सुधार पर काम चल रहा है। एक बार फिर आपका बहुत आभार
आ. अजय जी
इस बहर में लय में अटकाव (चाहे वो शब्दों के संयोजन के कारण हो) खल जाता है.
जब टूट चुका है दिल मेरा रख अपनी नसीहत अपने तक
नुक़सान उठाकर मैं ख़ुश हूँ , क्या और किसी का जाता है.
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संतोष की क़ीमत वो जाने, जो चैन गँवा कर पाता है.. चैन गंवा कर संतोष कैसे पाया जाएगा? संतोष परिस्थिति से साम्य के बिना नहीं होता और चैन गंवाना परिस्थिति से विद्रोह है.
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आज़ाद परिंदे पिंजरे में, जी पाएँ न पाएँ क्या मालूम,
जो धार से पीते है उनको, कासे का पिया कब भाता है।.. पंछी/ पिंजरे का धार से सीधा कोई सम्बन्ध कभी देखा नहीं है ..ऐसा कोई रूपक या इस्तिआरा भी नज़र से नहीं गुज़रा है . पुनर्विचार की आवश्यकता है.
पर्वत भी मिलेगा मिट्टी में ....सूरज भी कभी बुझ जाएगा
थोडा और समय दीजिये इस ग़ज़ल को ..
सादर
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