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ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते 
 तो आफ़ताब से बढ़कर चमक रहे होते. 
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 बदन की सिगड़ी के शोलों पे पक रहे होते
 वो मेरे साथ अगर सुब्ह तक रहे होते. 
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 तेरी शुआओं को पीकर बहक रहे होते 
 मेरी हवस को मेरे होंट बक रहे होते. 
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 सुकून मिलता हमें काश जो ये हो जाता 
 कि हम भी यार के दिल की कसक रहे होते.   
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 तेरी नज़र से उतरना भी एक नेमत है 
 वगर्न: आँखों में सब की खटक रहे होते. 
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 लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम 
 अगर जो आँखों में होते नमक रहे होते.
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 अगर शजर न भी होते तो हम से ख़ुशकिस्मत 
 किसी की ज़ुल्फ़ किसी की पलक रहे होते.
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 सराय छोड़ी तो घर तक पहुँच सके हैं हम 
 बदन में रहते तो अब तक भटक रहे होते.  
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 अगर ये ‘नूर’ मियाँ आदमी न होते तो 
 वो मंज़िलों से मिलाती सड़क रहे होते.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 
Comment
आभार आ. आज़ी तमाम भाई
आभार आ. लक्ष्मण जी
आभार आ. बबृजेश जी
वाह आ नूर जी बेहद खूब ग़ज़ल हुई
बधाई स्वीकार करें
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई
आदरणीय नीलेश जी...बहुतख़ूब ग़ज़ल कही...हमेशा की तरह विमर्श से उपयोगी जानकारी भी प्राप्त हुई...
जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है, हर शे'र उम्द: हुआ है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
//उस्ताद ज़ौक़ के मिसरे में न न की तक़रार है//
मैं इसके लिए उस्ताद ज़ौक़ की तरफ़ से मुआफ़ी चाहता हूँ:-)))
आ. समर सर,
उस्ताद ज़ौक़ के मिसरे में न न की तक़रार है।
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