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Veena Sethi's Blog (11)

जीवन

जीवन

तुम हो 

 एक अबूझ पहेली,

न जाने फिर भी

क्यों लगता है

तुम्हे बूझ ही लूंगी.

पर जितना तुम्हें

हल करने की

कोशिश करती हूँ,

उतना ही तुम

उलझा देते हो.

थका देते हो.

पर मैंने भी ठाना है;

जितना तुम उलझाओगे ,

उतना तुम्हें

हल करने में;

मुझे आनन्द आएगा.

और

इसी तरह देखना;

एक दिन

तुम मेरे

हो जाओगे.…

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Added by Veena Sethi on December 18, 2017 at 8:30pm — 5 Comments

सम्मान की एक जिंदगी.लघु कथा

जब से पता चला है कि रत्ना एक समय धन्धा करती थी, तब से पूरे समूह की दूसरी औरतों के चेहरे पर उसके प्रति नपंसदगी और तनाव साफ देखा जा सकता है. पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि उसका विरोध कर सके क्योंकि सबको दीदी का डर सता रहा था. मै ये बात एक स्वयं सहायता समूह “उदया” की कर रही हूँ जो हस्तशिल्प का काम एक एन.जी.ओ. के लिए करता है, जिसे विभा दीदी संचालित करती हैं. समूह की अध्यक्षा सरला से जब रहा नहीं गया तो उसने सबसे सलाह कर दीदी से बात करने की ठानी.

आज जब विभा आई तो उसने सबके बीच पसरे…

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Added by Veena Sethi on June 6, 2015 at 2:00pm — 7 Comments

धूप -कविता

धूप 



 

जिधर देखो आज

धुन्धलाइ सी है धूप. 

 

न जाने आज क्यों?

कुम्हलाई सी है धूप. 

 

आसमाँ के बादलों से

भरमाई सी है धूप. 

 

पखेरूओं की चहचाहट से

क्यों बौराई सी है धूप? 

 

पेड़ों की छाँव तले

क्यों अलसाई सी है धूप? 

चैत के माह में भी

बेहद तमतामाई सी है धूप. 

 

हवाओं की कश्ती पर सवार

क्यों आज लरज़ाई सी है धूप?

"मौलिक व…

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Added by Veena Sethi on July 24, 2014 at 5:30pm — 8 Comments

आत्म विश्लेषण क्यों न करे एक बार..........

कहते हैं की इन्सान दुनिया से मुँह चुरा सकता है पर स्वयं से नहीं। जब भी हम कुछ करते हैं अच्छा या बुरा हम स्वयं ही उसके गवाह और न्यायाधीश होते हैं, अगर अच्छा करते हैं तो खुद को शाबासी देते हैं और बुरा करते हैं तो स्वयं को कटघरे में खड़ा कर देते हैं,क्योंकि हम खुद के प्रति उत्तरदायी होते हैं पर ये सारी क्रिया हम दुनिया के सामने करने का साहस  कर सकते हैं … ??? नहीं … ना …!! क्योंकि हम दुनिया से मुँह चुरा रहे होते हैं। हमारे  कार्य जीवन के प्रति हमारे नजरिये से जुड़े होते हैं। हम क्या अच्छा करते…

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Added by Veena Sethi on December 27, 2013 at 5:30pm — 4 Comments

मेरी विचार यात्रा ....2--वाक् -युद्ध

वाक् -युद्ध

वाक् युद्ध याने शब्दों की लड़ाई। बिना शस्त्र या अस्त्र के लड़ा जाने वाला ऐसा युद्ध जिसमें कोई भी ख़ून खराबा नहीं होता और जिसमें किसी भी तरह के युद्ध क्षेत्र की आवश्यकता नहीं होती। इस वाक् युद्ध में कोई भी आपका शत्रु या मित्र आपके सामने हो सकता है।



वाक् युद्ध में किसी भी तरह के बचाव के लिए ढाल की जरुरत नहीं होती। शब्दों द्वारा लड़ी जाने वाली इस लड़ाई में जब स्वर की प्रत्यंचा पर शब्द रूपी बाण से किसी पर वार किया जाता है तो वह ख़ाली नहीं जाता। वैसे भी कहा जाता है…

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Added by Veena Sethi on June 27, 2013 at 1:30pm — 11 Comments

मेरी शब्द यात्रा----नदी...

---नदी...



नदी के कई नाम हैं...'सरिता, सरी, दरिया..........' अनवरत बहता हुआ स्वच्छ पानी -नदी कहलाता है. पर आजकल के सन्दर्भ में दरिया वो भी साफ़ पानी का थोड़ा मुश्किल है. नदी बहते हुए कभी शांत तो कभी चंचल हो जाती है. अमूमन दरिया शांत बहने वाली धारा लगती है.ये अपने मूल स्थान से जब निकलती है तो प्रायः पतली धारा ही होती है ठीक किसी नवजात शिशु की तरह. जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है उसके वेग में परिवर्तन होता जाता है जब पर्वत और पहाड़ों से अपनी यात्रा आरंभ करती है तो उसकी रवानी…

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Added by Veena Sethi on May 30, 2013 at 4:30pm — 8 Comments

माँ तुम्हारा वो एहसास----- कविता

 

माँ तुम्हारा वो एहसास 

माँ

                    

 तुम मेरी…

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Added by Veena Sethi on May 12, 2013 at 12:30pm — 9 Comments

दीया उम्मीद का

 दीया उम्मीद का 

 

इस  प्रछन्न अन्धकार में;

इक…

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Added by Veena Sethi on November 13, 2012 at 7:08pm — 1 Comment

सिमटते दायरे

सिमटते दायरे

मजहब और कौम के दायरे में

हम सिमट गए;

इन्सान की इंसानियत से

हम भटक गए.

जो गलियां-ओ-कूँचे रौशन थे

गुल्जरों से;

वो  इन्सान की दरिंदगी  से

वीरान हो गए.

जो कहते थे;

बहिश्त जमीं पे लायेंगे,

वो गैरों के टुकड़ों…

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Added by Veena Sethi on August 14, 2012 at 5:30pm — 3 Comments

जीवन

जीवन





जीवन

तुम हो 

 एक अबूझ पहेली,

न जाने फिर भी

क्यों लगता है

तुम्हे बूझ ही लूंगी.

पर जितना तुम्हे

हल करने की

कोशिश करती हूँ,

उतना ही तुम

उलझा देते हो.

थका देते हो.

पर मैंने भी ठाना है;

जितना तुम उलझाओगे ,

उतना तुम्हे

हल करने में;

मुझे आनद आएगा.

और

इसी तरह देखना;

एक दिन

तुम मेरे

हो…

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Added by Veena Sethi on July 29, 2012 at 6:35pm — 1 Comment

मुझे इल्जाम मत देना



मै

इक आवाज हूँ.

जब किसी मजलूम के

मुँह से निकलूँ, 

मुझे इल्जाम मत देना.

मै...

जब किसी की

सिसकी बन

आँखों से छलकूँ

मुझे इल्जाम मत देना.

मै...

जब किसी के

दर्द में

कराह बन जाऊं,

मुझे इल्जाम मत देना.

मै...

जब किसी के

दिल से

आह बन टपकूँ,

मुझे इल्जाम मत देना.

मै...

जब किसी के

चहरे पर

ख़ुशी बन चमकूँ,

मुझे इल्जाम मत देना.

मै..................



वीणा…

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Added by Veena Sethi on July 10, 2012 at 5:00pm — 12 Comments

कृपया ध्यान दे...

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"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। मार्गदर्शन के लिए आभार।"
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