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कल्पना रामानी's Blog – April 2014 Archive (7)

मेरा देश महान/तीन कुण्डलिया छंद/कल्पना रामानी

1) 

सोने की चिड़िया कभी, कहलाता था देश

नोच-नोच कर लोभ ने, बदल दिया परिवेश।   

बदल दिया परिवेश, खलों ने खुलकर लूटा। 

भरे विदेशी कोष, देश का ताला टूटा।

हुई इस तरह खूब, सफाई हर कोने की,

ढूँढ रही अब…

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Added by कल्पना रामानी on April 30, 2014 at 11:30am — 14 Comments

पंछी उदास हैं/नवगीत/कल्पना रामानी

गाँवों के पंछी उदास हैं

देख-देख सन्नाटा भारी।

 

जब से नई हवा ने अपना,

रुख मोड़ा शहरों की ओर।

बंद किवाड़ों से टकराकर,

वापस जाती है हर भोर।

 

नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,

अब उनको मुंडेर, अटारी।

 

हर आँगन के हरे पेड़ पर,

पतझड़ बैठा डेरा डाल।

भीत हो रहा तुलसी चौरा,

देख सन्निकट अपना काल।

 

बदल रहा है अब तो हर घर,

वृद्धाश्रम में बारी-बारी।

 

बतियाते दिन मूक खड़े…

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Added by कल्पना रामानी on April 23, 2014 at 9:00am — 27 Comments

बेटियाँ होंगी न जब /गजल/कल्पना रामानी

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गर्भ में ही निज सुता की, काटकर तुम नाल माँ!

दुग्ध-भीगा शुभ्र आँचल, मत करो यूँ लाल माँ!

 

तुम दया, ममता की देवी, तुम दुआ संतान की,

जन्म दो जननी! न बनना, ढोंगियों की ढाल माँ!

 

मैं तो हूँ बुलबुल तुम्हारे, प्रेम के ही बाग की,

चाहती हूँ एक छोटी सी सुरक्षित डाल माँ!

 

पुत्र की चाहत में तुम अपमान निज करती हो क्यों?

धारिणी, जागो! समझ लो भेड़ियों की चाल माँ!

 

सिर उठाएँ जो असुर, उनको…

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Added by कल्पना रामानी on April 16, 2014 at 10:00am — 28 Comments

किसे सुनाएँ व्यथा वतन की/गजल/कल्पना रामानी

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किसे सुनाएँ व्यथा वतन की।

है कौन बातें करे अमन की।

 

हुई हुकूमत हितों पे हावी,

हताश है, हर गुहार जन की।

 

फिसल रहे पग हरेक मग पर,

कुछ ऐसी काई जमी पतन की।

 

फरेब क़ाबिज़ हैं कुर्सियों पर,

कदम तले बातें सत वचन की।

 

निगल के खुशबू को नागफनियाँ,

कुचल रहीं आरज़ू चमन की।

 

ये किसके बुत क्यों बनाके रावण,

निभा रहे हैं प्रथा दहन की।

 

ज़मीं के मुद्दों पे चुप हैं…

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Added by कल्पना रामानी on April 14, 2014 at 9:45pm — 10 Comments

राम तुम्हें फिर.../गज़ल/कल्पना रामानी

मात्रिक छंद

असुरों के सुर उच्च हुए हैं, मौन मंत्र सिखलाना होगा।

राम, तुम्हें  फिर से कलियुग में, भारत भू पर आना होगा।

 

ओढ़ चदरिया राम नाम की, घूम रहे चहुं ओर अधर्मी।

धर्म-पंथ उनको दिखलाकर, गूढ़-ज्ञान  फैलाना होगा।

 

मानवता का ढोंग रचाकर, रावण ताज सजा …

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Added by कल्पना रामानी on April 8, 2014 at 11:00am — 18 Comments

समय हमें क्या दिखा रहा है/गज़ल/कल्पना रामानी

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समय हमें क्या दिखा रहा है।

कहाँ ज़माना ये जा रहा है।

 

कोई बनाता है घर तो कोई,

बने हुए को ढहा रहा है।

 

बुझाए लाखों के दीप जिसने,

वो रोशनी में नहा रहा है।

 

गुलों को माली ही बेदखल कर,

चमन में काँटे उगा रहा है।

 

कुचलता आया जहाँ उसी को,

जो फूल खुशबू लुटा रहा है।

 

जो बीज बोकर उगाता रोटी,

वो भूख से बिलबिला रहा है।

 

हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,

सदा…

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Added by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 9:50am — 24 Comments

खुशबू के पल भीने से/नवगीत/कल्पना रामानी

रंग चले निज गेह, सिखाकर

मत घबराना जीने से।

जंग छेड़नी है देहों को,

सूरज, धूप, पसीने से।

 

शीत विदा हो गई पलटकर।

लू लपटें हँस रहीं झपटकर।

वनचर कैद हुए खोहों में,

पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।

 

सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,

तरण ताल के सीने से।

 

तले भुने पकवान दंग हैं।

शायद इनसे लोग तंग हैं।

देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,

फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।

 

मात मिली भारी वस्त्रों…

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Added by कल्पना रामानी on April 1, 2014 at 10:30am — 16 Comments

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