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बृजेश नीरज's Blog – October 2013 Archive (9)

गीत

दीप हमने सजाये घर-द्वार हैं  

फिर भी संचित अँधेरा होता रहा

मन अयोध्या बना व्याकुल सा सदा

तन ये लंका हुआ बस छलता रहा

 

राम को तो सदा ही वनवास है

मंथरा की कुटिलता जीती जहाँ

भाव  दशरथ दिखे बस लाचार से

खेल आसक्ति ऐसी खेले यहाँ

 

लोभ धर रूप कितने सम्मुख खड़ा

दंभ रावण के जैसा बढ़ता रहा

 

धुंध यूँ वासना की छाने लगी

मन में भ्रम इक पला, सीता को ठगा

नेह के बंध बिखरे, कमजोर हैं

सब्र शबरी का…

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Added by बृजेश नीरज on October 28, 2013 at 9:30pm — 26 Comments

शाम

मैं लेटा हूँ घास पर / सूखी भूरी घास 

जिसके होने का एहसास भर है

 

जमीन गरम है

लेकिन लेटा हूँ 

धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी

तपन की अनुभूति

 

उड़े जा रहे हैं

पंछी एक ओर 

शरीर के नीचे

रेंगती चींटियाँ 

पास ही खेलते कुछ बच्चे 

कुछ लोग भी

इधर-उधर छितरे, घूमते-बैठे

 

मैं निरपेक्ष

लेटा तकता आसमान

कि कभी टूटकर गिरेगा

और धरती का

रंग बदल जाएगा

             …

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Added by बृजेश नीरज on October 24, 2013 at 8:00pm — 29 Comments

कुण्डलियाँ

कैसा ये जीवन हुआ, दिन प्रति बढ़े विकार

लोभ, मोह, मद, दंभ भी, नित लेते आकार  

नित लेते आकार, स्वार्थ के सर्प अनूठे

बाँट रहे संदेह, नेह के बंधन झूठे

मन में फैली रेह, भाव है ठूंठों जैसा

संवेदन अब शून्य, मूल्य संस्कृति का कैसा

                - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on October 19, 2013 at 10:30pm — 23 Comments

कुण्डलियाँ

तेरी कान्हा बांसुरी, छेड़े ऐसी तान

जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान

बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे

जग माया का जाल, दर्प के दरपन टूटे

हुआ क्लेश का नाश, पीर सब हर ली मेरी

पर ये क्या बैराग? लुभाती है छवि तेरी !!

- बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on October 18, 2013 at 11:00pm — 29 Comments

चोका/ हे जगदम्बे!

5+7+5+7……..+5+7+7 वर्ण

 

जीवन कैसा

एक चिटका शीशा

देह मिली है

बस पाप भरी है

भ्रम की छाया

यह मोह व माया

अहं का फंदा

मन दंभ से गन्दा

शब्द हैं झूठे

सब अर्थ हैं छूटे

तृप्ति कहीं न

सुख-चैन मिले न

फाँस चुभी है

एक पीर बसी है 

प्यास बढ़ी जो

अब आस छुटी जो

किसे पुकारें

अब कौन उबारे

एक सहारा

माँ यह तेरा द्वारा

हे जगदम्बे!

शरणागत तेरे

आरती…

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Added by बृजेश नीरज on October 13, 2013 at 1:00pm — 33 Comments

राम! कहाँ हो!

कैकई के मोह को

पुष्ट करता

मंथरा की

कुटिल चाटुकारिता का पोषण

 

आसक्ति में कमजोर होते दशरथ

फिर विवश हैं

मर्यादा के निर्वासन को

 

बल के दंभ में आतुर

ताड़का नष्ट करती है

जीवन-तप  

सुरसा निगलना चाहती है

श्रम-साधना

एक बार फिर

 

धन-शक्ति के मद में चूर

रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं 

 

आसुरी प्रवृत्तियाँ

प्रजननशील हैं

 

समय हतप्रभ

धर्म ठगा सा…

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Added by बृजेश नीरज on October 10, 2013 at 11:30pm — 26 Comments

हाइकु/ आम आदमी

१.

टेढ़ी मचिया

टिमटिमाता दिया

टूटी खटिया.

 

२.

वर्षा की बूँदें

रिसती हुई छत

गीली है फर्श.

 

३.

छीजती आस

बिखरते सपने

टूटा साहस.

 

४.

छोटी सी जेब

बढती महंगाई

भूखा है पेट.

 

५.

बूढ़ा छप्पर

दरकती दीवार

खंडित द्वार.

 

६.

ठंडा है चूल्हा

अस्त होता सूरज

छाया कोहरा. 

     - बृजेश…

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Added by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 11:30pm — 26 Comments

कुण्डलियाँ

जीवन में पहली बार कुण्डलियाँ लिखने का प्रयास किया है. आप सबका मार्गदर्शन प्रार्थनीय है.

अम्बे तेरी वंदना, करता हूँ दिन-रात

मिल जाए मुझको जगह, चरणों में हे मात

चरणों में हे मात, सदा तेरे गुण गाऊँ

चरण-कमल-रज मात, नित्य ही शीश लगाऊँ

अर्पित हैं मन-प्राण, दया करिए जगदम्बे

शब्दों को दो अर्थ, मात मेरी हे अम्बे

.

- बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 11:30am — 32 Comments

दोहे/ रात

ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी जब ये रात!

गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात!!

 

तारों का झुरमुट सजा, चाँद खड़ा मुस्काय!

इठलाये जब चाँदनी, मन-उपवन खिल जाय!!

 

धवल रंग की रोशनी, जगत रही है सींच!…

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Added by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 5:46pm — 22 Comments

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