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S.S Dipu's Blog – August 2015 Archive (6)

नारी

मैं डरती झिझकती

सहमती नहीं हूँ

बिखरती भटकती

सिहरती नहीं हूँ

हक़ीक़त से रूबरू

होती हूँ रोज़

चमकते परो से

बहकती नहीं हूँ

अपने आसमां

की मल्लिका हूँ मैं

सोने के महलों मे

छिपती नही हूँ

उठती हूँ गिरती हूँ

गिरके सम्भलती हूँ

धधकती हूँ लेकिन

पिधलती नही हूँ

चट्टान सी मैं

खड़ी हूँ शिखर पर

अन्धड़ हो जितना

बिखरती नही हूँ

मुझसे हो जन्मे

डलते मुझी मे

साँसों की लय सी

मैं थमती नही हूँ

आज़मा लो… Continue

Added by S.S Dipu on August 26, 2015 at 9:58am — 1 Comment

वो कहाँ निकले

कहाँ से चले थे
वो कहाँ से निकले,
जहाँ लगाए थे पौधे
वो कहाँ निकले।
वेा रात का सन्नाटा
बादल का कहर,
जो घर बह गये थे
वो कहाँ निकले।
दुष्मन के घर आज है
बहुत बड़ा जलसा,
दोस्त मेरे अपने
आज कहाँ निकले।
जुलाहे यूँ कर धागे
पर गिरह न पड़ पाये
गाँठ एक बार लगे तो
फिर कहाँ निकले
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 17, 2015 at 1:30am — 8 Comments

क़ायदे मे

मालामाल धन् सॆ नही
चरित्र सॆ हॊता है
सन्त हमॆशा अपने
क़ायदे मॆ रहता है
जिस कि अज़ान पर
हक़ हर जाती का हो
मस्जिद मॆ समझो वहीं
सच्चा मुसलमान रहता है
क्या इत्तना भी हमे
तजुरबा नही रहा
कि बिलो मे
सदा साँप रहता है
मन्दिर् बहुत हैं गुरुद्वारे
से आगे थोड़ा जाकर
याद रखना खुदा हमारे
दिलों मॆ रॆहता है
खुद कॊ खुदा बताकर
जो हिम्मत नही हारे
सच कब तक झूठ के
फंदों मे रहता है।
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 11, 2015 at 5:58pm — 3 Comments

फँसाने आँखो के

फँसाने आँखो के
सूखे पड़े हए है
वक़्त के आगे
बेबस खड़े हुए है
यारों तुम भी हँस लो वरना
उन जैसे हो जाओगे
गाते हुए चेहरे जो
ख़ामोश पड़े हुए है
देर रात की सड़कों पर
धूमें तो मालूम हुआ
कुछ लोग पत्थरों पर
बिन चादर सोये हुए है
मालूम है हमें भी
हक़ीक़त उन चेहरों की
मुस्कुराकर हाथ मिलाने का
जो बोझ लिए हुए है
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 10, 2015 at 8:47pm — 6 Comments

इस तरह भी नही

अपनो के चहरे न
रूला पाये अपनो को
ग़ैरों के झूठे बोल
तुम्हें शहद से लगे
हमने सच का तुम्हें
आईना जो थमाया
तुम तो बग़ावत के
पलटवार कर चले
चलिये झूठ तो मौत के
साये मे जी रहा है
गर फिर जन्म लेगा
तो इस तरह भी नहीं
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 5, 2015 at 7:04pm — 2 Comments

कोई बात बने

मोम के पिघलने का
सदियों से रहा है दस्तूर
कोई पत्थर अब पिघला दे
तो कोई बात बने
ऐसा भी नही
कि हर शाम हो हसीन
धूप पर पानी छिड़क
तो कोई बात बने
लड़खड़ाकर मन्दिर का
दिया करता है रोशन
घर के परदे को सिल
तो कोई बात बने

.
मौलिक व अप्रकाशित"

Added by S.S Dipu on August 3, 2015 at 9:00pm — 11 Comments

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