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KALPANA BHATT ('रौनक़')'s Blog – June 2017 Archive (5)

मूक दर्शक (लघुकथा)

" बहुत अच्छा करती हो जो अब गोष्ठियों में आने लगी हो , अच्छा लगा आपको यहाँ देखकर । " एक वरिष्ठ साहित्यकार ने एक महिला से कहा ।

" जी नमस्ते सर , नहीं ऐसा कुछ नहीं है , समय अनुसार आ जाती हूँ , विविध रचनाकारों को सुनने का अवसर मिल जाता है । " उस महिला ने उत्तर दिया ।

" ओह तो श्रोता बनकर आती हो ? "

" जी , वैसे सुना है आज कल श्रोता नहीं मिलते ? जो भी आते है उन सभी को मंच की लालसा होती है । "

" बिलकुल सही कह रहीं हैं आप", अट्हास लेते हुए उन्होंने अपने साथी की तरफ देखते हुए कहा , एक…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 24, 2017 at 2:30pm — 11 Comments

ख़ामोशी (हाइकू)

1

कैसी ख़ामोशी

हर तरफ़ देखो

रात खामोश



2

यह जो तुम

हो गये हो ख़ामोश

बदली छायी ।



3

बदल गए

सोचा न ऐसा  कभी

ख़ामोशी बोली ।



4

दूर हो गए

कदम ख़ामोशी के

चलते चले ।



5

जब टूटेगी

ख़ामोशी बादलों की

वर्षा ही होगी ।



6

सुनायी देती

ख़ामोशी की ज़ुबान

आँखों में देख ।



7

लम्बी ख़ामोशी

काँटो सी है चुभति

समझे कोई ।



8

रहने लगे…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 12, 2017 at 11:00pm — 2 Comments

हाइकू

हाइकू



1

पैसा बोलता

सर चढ़कर है

घमण्डी होता ।



2

पैसा जरुरी

इन्कार तो नहीं है

पर कितना



3

खुशियाँ वहीँ

पहाड़ों पे मिलती

पैसे वालो को



4

सुकून ख़ोजे

क़ैद होकर जब

हंसता पैसा



5

बोले है पैसा

न चाहते हुए भी

अमीर वाणी



6

तौला प्यार को

पैसों की जुबान से

न चला पता ।



7

तलवार सी

धार पैसो की होती

वार करती ।



8

बदले… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 11, 2017 at 10:55pm — 8 Comments

बोलती है चुप्पी भी ( कविता)

बोलती है चुप्पी भी
अपने तरीके से करती है बाते

इधर उधर देखती है
कभी मन्द मुस्कुरा देती है

कभी आँखों से करती है बयान
कभी चहरे पर भाव दिखाती है

बोलती है चुप्पी भी
ख़ामोशी से ही सही

पर कभी कभी दे जाती है
बड़े घाव ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 9, 2017 at 12:53pm — 4 Comments

मेरे भीतर की नदी ( कविता)

कल कल बहती है नदी

मेरे भीतर भी कहीं



सूर्य की तपिश में

गर्म होती है ऊपरी सतह



चाँदनी रातों में चमक जाती है

श्वेत तारों को आग़ोश में लिए हुए



सावन में हरित होती मिट्टी

सिमट जाती हैं मुझमें कभी



फिसलती रेत कभी जम जाती है

पर बहता है जल प्रवाह



निरंतर कभी ऊचें पर्वतों से

कभी निचली सतह पर अपनी गति से



ज़मीन पर से देखती है आसमां को

अपने में बहुत कुछ समेटे हुए



छोटे कंकड़ , बड़ी चट्टानें

छोटे… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 3, 2017 at 8:56am — 8 Comments

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