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Sushil Sarna's Blog – May 2015 Archive (5)

गुलदस्ता - .......३ मुक्तक

गुलदस्ता - ........३ मुक्तक

हर लम्हा ....



जब भी  ये  दिल उदास होता है

जाने कौन  आस  पास  होता है

मेरी तन्हाई को  साँसे देने वाले

हर लम्हा तेरा अहसास होता है

..............................................

तमाम सांसें .....

आपकी हर अदा  को  सलाम करते हैं

अपनी मुहब्बत .आपके नाम करते हैं

वजह बन गए हैं जो हमारे ख़्वाबों की

तमाम सांसें .हम उनके नाम करते…

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Added by Sushil Sarna on May 25, 2015 at 1:30pm — 17 Comments

कितना सुहाना होगा ………..

कितना सुहाना होगा ………..



अपने अपने दंभों को समेटे

हम इक दूसरे की तरफ 

पीठ करके चल दिए 

बिना इसका अनुमान लगाये कि

मुंह मोड़ के हम

उन स्नेहिल पलों का 

अनजाने में क़त्ल कर रहे हैं 

जो हमने

तारों की छाँव में

चांदनी की बाहों में 

नशीली निगाहों में 

इक दूसरे के कन्धों पर सिर रख कर

इक दूसरे की उँगलियों में उंगलियाँ डालकर

इक दूसरे के केशों से खेलते हुए 

निशा में अपने अस्तित्व को 

इक दूसरे में विलीन करके संजोये थे 

और हाँ…

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Added by Sushil Sarna on May 20, 2015 at 2:17pm — 9 Comments

तृषा जीवन की …

न स्याम भई न श्वेत भयी …


न स्याम भई न श्वेत भयी
जब काया मिट के रेत भयी
लौ मिली जब ईश की लौ से
भौतिक आशा निस्तेज भयी
यूँ रंग बिरंगे सारे रिश्ते
जीवन में सौ बार मिले
मोल जीव ने तब समझा
जब सुख छाया निर्मूल भयी
सब थे साथी इस काया के
पर मन बृंदाबन सूना था
अंश मिला जब अपने अंश से
तब तृषा जीवन की तृप्त भयी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 17, 2015 at 12:30pm — 16 Comments

प्यासी देह .....

प्यासी देह .....

मन की कंदराओं में किसने .......

अभिलाषाओं को स्वर दे डाले .......

किसकी सुधि ने रक्ताभ अधरों को ......

प्रणय कंपन के सुर दे डाले//

मधुर पलों का मुख मंडल पर ........

मधुर स्पंदन होने लगा .........

मधुर पलों के सुधीपाश में ........

मन चन्दन वन होने लगा//

नयन घटों के जल पर किसकी .......

स्मृति से हलचल होने लगी ........

भाव समर्पण का लेकर काया .......

मधु क्षणों में खोने लगी//

किसको…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 15, 2015 at 9:53am — 26 Comments

आँखों में बेबस मोती है …

आँखों में बेबस मोती है …

रात बहुत लम्बी है

ज़िंदगी बहुत छोटी है

पत्थरों के बिछोने पे

लोरियों की रोटी है

अब वास्ता ही नहीं

हाथों की लकीरों से

भूख बिलखती है पेट में

मुफलिसी साथ सोती है

आते ही मौसम चुनाव का

होठों पे हँसी होती है

राजनीति की जीत हमेशा

हम जैसों से ही होती है

हर चुनाव के भाषण में

नाम हमारा ही होता है

कुर्सी मिलते ही फिर से

फुटपाथ पे तकदीर होती है

संग होते हैं श्वान वही

वही भूखी रात…

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Added by Sushil Sarna on May 4, 2015 at 4:00pm — 14 Comments

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