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गिरिराज भंडारी's Blog – February 2017 Archive (5)

ग़ज़ल -है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या - ( गिरिराज )

1212   1122   1212    22 /122

सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या

है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या

 

शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे

निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या

 

कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं

लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या

 

यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में

शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या

 

यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में

हुआ है ज़िस्म का…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 27, 2017 at 7:30am — 25 Comments

ग़ज़ल -सुखवनर से वो पहले आदमी है - ( गिरिराज )

1222    1222     122 

सुखनवर से वो पहले आदमी है

गलत क्या है अगर नीयत बुरी है

 

किताबों से कमाई कम हुई तो   

सुना है, रूह उसने बेच दी है  

 

अचानक आइने के बर हुये हैं

इसी कारण बदन में झुरझुरी है

 

लगावट खून से, होती है अंधी

वो काला भी, हरा ही देखती है

 

चली तो है पहाड़ों से नदी पर

सियासी बांध रस्ता रोकती है

 

दिवारें लाख मज़हब की उठा लें

अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 23, 2017 at 7:30am — 6 Comments

ग़ज़ल -इक अधूरी नज़्म मेरी ज़िन्दगी थी - ( गिरिराज )

2122   2122    2122 

हर हथेली, क़ातिलों की जान ए जाँ  है

ज़ह्र उस पे, मुंसिफों सा हर बयाँ है     

 

बाइस ए हाल  ए तबाही हैं, उन्हें भी    --

बाइस ए तामीर होने का गुमाँ है  

 

एक अंधा एक लंगड़ा हैं सफर में

प्रश्न ये है, कौन किसपे मेह्रबाँ है

 

किस तरह कोई मुख़ालिफ़ तब रहेगा

जब कि हर इक, दूसरे का राज दाँ है

 

जिन चराग़ों ने पिया ख़ुर्शीद सारा  

उन चराग़ों में भला अब क्यूँ धुआँ है

 

जब…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 19, 2017 at 9:30am — 20 Comments

ग़ज़ल -मेरा ग़रीब खाना है ऊँचे भवन के बाद - ( गिरिराज )

( अज़ीम शायर मुहतरम जनाब कैफ़ी आज़मी साहब की ज़मीन पर एक प्रयास )

221  2121   1221    212

मुझको कहाँ अज़ीज़ है कुछ भी चमन के बाद

क्या मांगता ख़ुदा से मैं हुब्ब-ए-वतन के बाद



तहज़ीब को जो देते हैं गंग-ओ-जमुन का नाम

ये उनसे जाके पूछिये , गंग-ओ-जमन के बाद ?



वो लम्स-ए-गुल हो, या हो कोई और शय मगर

दिल को भला लगे भी क्या तेरी छुवन के बाद



वो चिल्मनों की ओट से देखा किये असर

बातों के तीर छोड़ के हर इक चुभन के…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 5, 2017 at 7:46am — 24 Comments

गज़ल - किसी हाथ में अब तक खंज़र ज़िन्दा है - ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   2 ( बहरे मीर )

किसी हाथ में अब तक खंज़र ज़िन्दा है

***********************************

सबके अंदर एक सिकंदर ज़िन्दा है

इसीलिये हर ओर बवंडर ज़िन्दा है  

 

सब शर्मिन्दा होंगे, जब ये जानेंगे

अभी जानवर सबके अंदर ज़िन्दा है

 

मरा मरा सा बगुला है बे होशी में

लेकिन अभी दिमाग़ी बन्दर ज़िन्दा है

 

फूलों वाला हाथ दिखा असमंजस में

किसी हाथ में अब तक खंज़र ज़िन्दा है

 

परख नली की बातों…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 2, 2017 at 8:30am — 15 Comments

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"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
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