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चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक-१६ की सभी रचनाएं एक साथ :

चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक-१६ की सभी रचनाएं एक साथ :

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सर्व श्री आलोक सीतापुरी  

मदिरा सवैया  

(सात भगण + एक गुरु)

(प्रतियोगिता से अलग)

सावन की मन भावत है रूत मौज मनाय रहीं सखियाँ.

साजन झूलि रहे झुलुवा मुस्काय लड़ावति हैं अँखियाँ.

प्रीतम हैं जिनके परदेश म रोय कटैं उनकी रतियाँ.

पेंग बढ़ावत याद सतावत हूक उठै धड़कै  छतियाँ..

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श्री अविनाश एस० बागडे

छन्न पकैया......

छन्न पकैया - छन्न पकैया , रिम-झिम सावन आया.

साथ बिजुरिया गरज रही है, मेघ-मल्हार सुनाया.

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , करती आँख - मिचौली.

बादल  लेकर  होते  गायब , बरखा  जी  की  डोली!!

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , सूरज ढीठ बड़ा है.

मेघों का हरकारा देखो , कर  के  पीठ  खड़ा है.

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , वसुंधरा है प्यासी.

चोंच उठाये आसमान  में ,  चातक लेत उबासी.

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , जंगल जो काटोगे.

कुदरत का कानून सख्त है , जो बोया   काटोगे.

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , चूक हुई बादल जी.

बुला रहा है ,अब तो आओ , धरती का आँचल जी.

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , ये सावन के झूले.

बिन पुरवा के पेंग मारना , सब के सब हैं भूले.

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छन्न पकैया - छन्न पकैया , अब तो घर आ जाओ.

ओ घनश्याम हठीले बादल , इतना भाव न खाओ.

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दो रोले....

१..

कहता  है ' अविनाश ' ,पड़े सावन  के  झूले.

मस्ती का माहौल ,मदन-मन सब कुछ भूले.

भरते  ऊंची  पेंग , उम्र  का यही  तकाजा.

करते  सभी  धमाल, सभी हैं रानी - राजा!

२..

लिखता है' अविनाश ' पढो ये सुंदर रोला.

सावन की ये हवा , हमारा मन भी डोला.

नहीं उम्र की सीमा,'चालीस' किसे बताते?

कैसी  पंचायतें! , कुदरती  हैं  ये  बातें...........

 

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अम्बरीष श्रीवास्तव  

 

(प्रतियोगिता से अलग)

छंद रूपमाला

(14+10 मात्रा)

सावनी मधुरिम बहारें, गीत गातीं आज.

सामने मदमस्त झूले, बज रहे मन साज.

जा रही है पेंग बढ़ती, सावनी अंदाज़.

देख ऊँची जा रही है, प्यार की परवाज़.  

 

बढ़ रही हैं धड़कनें रह,-रह उठें ये गात. 

कर रहीं सखियाँ ठिठोली, झूमते तरु पात.

झूलते सम्मुख सजन हैं, दे हृदय आवाज़.  

कांपता कोमल कलेजा, आ रही जो लाज.

 

पड़ चुकीं रस की फुहारें, अब खिली है धूप.

खिल गए मन भी हमारे, सुर सलोना रूप.   

जो मिले ये नैन उनसे, खो गयी जगजीत.

मदभरी चितवन निहारे, मन मुदित मनमीत.

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श्री अलबेला खत्री

 

दोहे

नर-नारी के भेद को, छवि में दिया दिखाय
ये तो ख़ुद ही झूलते, उन को लोग झुलाय

तीन तिलंगे चढ़ गये, झूला हुआ हैरान
बोला मुझे बचाइये, संकट में है जान

एक सिंहासन पर जमा, दो दो चंवर डुलाय
इन्हें देख कर रमणियाँ, दन्त खोल मुस्काय

हाफ़ पैंट में आ गया, निर्लज्ज एक जवान
कन्याओं को आ गई, लाज भरी मुस्कान 

इक झूले पर झाड़ है, दूजे पर हैं फूल
कुदरत ने निर्णय किया,दोनों के अनुकूल

यहाँ देखिये कुछ नहीं,वहाँ हैं सुन्दर लोग
तुलसी ने इसको कहा, नदी नाव संयोग

ये सावन की मस्तियाँ. ये यौवन का रंग
बिन होली बजने लगे, अन्तर्मन में चंग

झूला झूले गोरियां, कालू  करते खेल
मेल-मिलन को देख कर, मुस्कायें फ़ीमेल

सावन आया झूम कर, ले रिमझिम बरसात
प्यासी धरती ख़ुश हुई, दादुर भी इतरात

झूले पर नवयौवना, बैठी कर सिंगार
घूर घूर मत देखिये, पड़ जायेगी मार

मार पड़े तो ग़म नहीं, किन्तु प्यार मिल जाय
मन मधुबन के भाग्य में, फूल कोई खिल जाय

ओ बी ओ के आंगना, झूला हैं तैयार
आओ हम भी झूललें, गा गा कर मल्हार .......सियावर रामचन्द्र की जय !

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आदरणीय मंच संचालक/एडमिन महोदय,
प्रतियोगिता से बाहर रह कर मैं  चित्राधारित  चार घनाक्षरी छन्द प्रस्तुत कर रहा हूँ .

                                  चार घनाक्षरी

आय के झूले पे बैठ गई दो दो रूपसियाँ, जम के झुलाओ झूला, सावन है छोरियों
सावन के गावन सुनावन का मौसम है, शिव का ये मास बड़ा पावन है छोरियों 
गरमी को चीर देता, शीतल समीर देता, मौसमे-बहार मनभावन है छोरियों
सावन में झूले पर झूलने की रीत है ज्यों, कार्तिक में प्रात का नहावन है छोरियों
 
छोरियों के लाल लाल,  गाल लगते गुलाल, छोकरों के थोबड़े हैं, ड्रम कोलतार के
छोरियां तो लगे मुझे मुखपृष्ठ पुस्तक का, छोकरे दिखे हैं जैसे पन्ने अखबार के
छोरियों  की रंगत है नगद इनाम जैसी, छोरे दिखते हैं जैसे भाण्डे हों उधार के
छोरियां रंगीन और छोरे रंगहीन यारो,छोरियां हैं प्यार, छोरे भुक्खड़ हैं प्यार के

प्यार के पिपासु यहाँ प्यार पाने आ गये हैं,  प्यार से भी प्यारी सुकुमारियों के सामने
रूप के लुटेरे मुँह धो कर के आ गये हैं, रूप लूटने को रूपवारियों के सामने
सावन के पावन सुहावन दिनों में झूला झूलने लगे हैं नर नारियों के सामने
जैसे निजी बस वाले बस रोक देते और होरन बजाते हैं सवारियों के सामने

सामने का सीन देख देख एक एक हँसता है और दो दो पट्ठे खड़े चेहरे झुकाय के
नर के ये खर जैसे ढंग देख देख कर, मुखमण्डल खिले हैं नारी समुदाय के
सखियों सहेलियों ने रागनियाँ छेड़ दी हैं, दो दो नववधुओं को झूले में झुलाय के
सुलग रही थी मही, भले देर से ही सही, शीतल किया है इसे सावन ने आय के

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आदरणीय एडमिन /मंच संचालक महोदय,
प्रतियोगिता से बाहर रह कर,  पहली बार छन्न पकैया में प्रयास किया है.

छन्न पकैया - छन्न पकैया, सुनो बहन के भैया
हमें सिखाओ हमें सिखाओ, लिखना छन्न पकैया  

छन्न पकैया - छन्न पकैया, कल तक प्यासी मरती
बरस गये जब बदरा इस पर, तृप्त हो गई धरती

छन्न पकैया - छन्न पकैया,  झूला झूले गोरी
छाने छाने, चुपके चुपके, देखो चोरी चोरी

छन्न पकैया - छन्न पकैया, फोटो बड़ी सुहानी
यों लगता ज्यों रुक्मिणी संग, झूले राधा रानी

छन्न पकैया - छन्न पकैया, चितवन जिनकी बाँकी
मन में लड्डू फूट पड़े जब, देखी उनकी झाँकी

छन्न  पकैया - छन्न पकैया, रोको ये रंगरलियाँ
वरना मेरे मन में भी मच जायेंगी खलबलियाँ

छन्न पकैया -छन्न पकैया, क्यों नहीं जगते लोग
मजदूरों को फाका, नेता भोगे छप्पनों भोग

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श्री सत्यम उपाध्याय

आप सभी का स्वागत. इस प्रतियोगिता में मेरी प्रथम आहुति एक घनाक्षरी छंद के रूप में

 

 

आया रितुराज बजे मनवा के तार देखो

चहुं ओर हरियाली चहुं ओर पानी है

अमिया की डाल पर गोरियों ने झूले डाल

मंद मंद महकाई अपनी जवानी है

कहीं पे लगे हैं मेले कही पे मल्हार गवै

सावन में नाच रही मोरनी दीवानी है

छोटे छोटे बच्चों को बहाते देखा नाव तब

बूढों को भी याद आयी नानी की कहानी है

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श्री अरुण कुमार निगम

छंद मत्तगयन्द सवैया -सात भगण अंत में दो गुरु

सावन पावन है मन भावन आय हिया हिचकोलत झूलै

बाँटत बुँदनिया बदरी बदरा रसिया रस घोरत  झूलै

झाँझर झाँझ बजै  झनकैय झमकैय झुमके झकझोरत झूलै

ए सखि आवत लाज मुझे सजना उत् भाव विभोरत झूलै

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श्री नीरज 

सावन [छन्द  आधारित ]  

सुषमा -कुसमा विमला -कमला, सब झूलि रहीं झुलुआ हरषी.[१]

सब हाल बेहाल निहाल भये,जब सावन की वर्षा बरसी.[२]

जब वारि की धार धरा पे गिरी ,जल प्लावित भई तपती  धरती.[३]

हम डाल पे डाल दियेन  झुलुआ ,सब झूलौ  नीरज की विनती..[४] 

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श्री लक्षमन प्रसाद लड़ीवाला

सावनी मौसम आया है 

ओ बी ओ ने डाला झूला,  झूलन  मौका आया है 

मन में गीत समाया है,  सावनी मौसम आया है |

 

चलो मन मेरे वहां चले, जहाँ बसत सखा ब्रजराज 

झूला झूले, प्रभु दर्शन करे, एक पंथ और दो काज | 

 

माधव मुग्ध बांसुरी बजा, झूल रही है राधा रानी,

बालों को फूलों से सजा, देखो चहक रही महारानी |

 

गणगौर सी सज-धज आई, देखो सखियाँ सारी.

अनुपम द्रश्य मनोहर भाई, है झूलन की तैयारी |

 

मन मेरा भी कर रहा चलो, ओ बी ओ में झूला झूले 

पहले कभी झूले नहीं, चलोअब माफ़ी मांग के झूले |

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आओ झूले-मधुशाला सा सावन 

 

आओ प्रिये! प्रणय के विरह में नींद न आवे 

संग संग झूलन झूले प्रणय गीत भी गावे |

 

आओ प्रिये! दिन रुदन, रात आह भरन में कट जावे 

दो घडी अब सावन के झूलन में,आओ मन बहलावे |

 

आओ प्रिये! मन खोया खोया आँखे भरी भरी रहवन 

झूलन की एक गाडी में, झूले सपनों में खो जावन |

आओ प्रिये! भीगे भीगे नयनो में तसवीर समायी 

झुलान्झुले आओ एक दूजे के बांहों में आ समाये |

 

कह कवी दिनकर सबसे कठिन रोग प्रणय का 

आओ झूले स्नेहे से कहदो यह रोग है र्हदय का |

 

सखी संग झूल चाकी आओ प्रिय आब सखा बन 

संग संग झूले मस्ती में, मधुशाला सा सावन |

 

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श्री उमाशंकर मिश्रा

मेरी यह रचना प्रतियोगिता से बाहर समर्पित है

करत श्रृंगार राधा, मन में दहन लगी
झूलने की चाह लिए, चली अमराई है

सखियों को संग लिए, खुशियाँ उमंग डारी
सावन के झूले झूल. ब्रज की कुमारी है

बगिया है फूले आज, फलती है अमराई
लहर लहर झूला, मन गुद गुदाई है

कदंब के ड़ार झुके, उठे झकझोर रही
ग्वालो के संग मोहन, करत ढिठाई है
.


करत ठिठोली ग्वाल, ग्वालिनों के संग रचे
पैरन में बल डाल, झुलना उड़ाई है

मन में मृदंग बजे, मोहन को संग लिए
उठे झूल झूल मन तन अंगडाई है

हवा भी हिलोरे लिए, सरर सरर बजे
चरर चरर करे, झुलना झुलाई है

बरखा बहार लिए, झूली झूल ललना
हरी भरी बगिया में, झूमे तरुणाई है    

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(प्रतियोगिता से बाहर) 

सावन महीना सास का, बहु को दिया पठाय|

पिय की याद ज्वाला बन, रात रात  तरसाय||

 

बाबुल के घर आय के, सखियन भेंट कराय|

तरल याद पिय की लिए,बगिया झूलन जाय||

 

झूला लिए हिलोर जब, मन गद गद हो जाय|

लड़कों की हठ खेलियाँ, हाय हाय चिल्लाय||

 

झूला झूले बावरे,  हम तो हुए पराय|

अब छोड़ो पिछा मेरा, दर्द पिया को जाय||

 

पिया बसे परदेश में, झूला हिचकी खाय|

याद कर रहे हैं हमें, झूलत पैर खुजाय||

 

झूल झूल है मस्तियाँ, अंग अंग गदराय|

प्रथम मिलन की याद को,सखि पूछत शरमाय||

 

दिवस रात की कह गई, सखियन के बहकाय|

गाल लाल से शर्म हुए, हाय राम गस खाय||

 

झूला उड़ ऊपर उड़ा  सखियन धूम मचाय|

चिकुट चिकूटी काटती, सब सखियन मुस्काय||

उमाशंकर मिश्र

       

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श्रीमती सीमा अग्रवाल

घनाक्षरी छंद (इसे कवित्त, या मनहरण भी कहते हैं ) यह एक वर्णिक छंद है   8+8+8+7=31 वर्ण ..अंत का वर्ण गुरु होता है l शेष के लिए गुरु लघु का नियम नहीं है l 

(प्रतियोगिता से अलग )

घहर घहर घन ,घिरी चहुँ ओर रहे ,उमड़ घुमड़ घटा, अति अकुलाई है l

छेड़ कजरी मल्हार, धार रूप पे सिंगार, सखियों की फ़ौज देखो ,अति उमगाई  है ll

झूल रहीं बारी बारी ,नाच रहीं दे दे तारी,गेंदन के फूलन से, झूलनी सजाई है l

मन मे उमंग भर तन मे तरंग धर,सुमर किशन राधा अति शरमाई है ll 

 गज़ब है आन-बान, त्याग बंसी की तान ,झूल रहे झूला मस्त, किशन कन्हाई है l

कदम्ब का पेड नहीं ,हाथ मे गुलेल नहीं, कैसी घन श्याम ने ये, हालत बनाई है ll

बदल गए रिवाज़, रोज हो रहे हैं रास,कहाँ कान्हा सम आज, दया चतुराई है l

नया युग नया रूप ,नई छाँव नई धूप, देख कान्हा ने भी पैंट, टीशर्ट चढाई है ll

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संदीप कुमार पटेल ‘दीप’

(प्रतियोगिता से बाहर )
छंद घनाक्षरी

जींस पेंट शर्ट कसे, आज जहां कान्हा खड़े
वहीँ आज राधा रानी, शोर्ट पहन आई है
लोक लाज बेच दी है, पश्चिमी अंदाज लिए
पहले था नटखट जो , बेशर्म कन्हाई है
घुमते है नर-नारी, बाहन में बांह डाले
फर्क नहीं पड़े उन्हें , क्या जग हसाई है
सावन का महिना है, डाल डाल झूले पड़े
रंगत जहान की ये, किसे नहीं भाई है ..

(प्रतियोगिता के दौरान संशोधित रूप )

सावन महीना आये, फूल पात हँसे खिले
रंगत जहान की ये, किसे नहीं भाई है
बाग़ बाग़ हरे भरे, डाल डाल झूले पड़े
झूल रही राधा रानी, झूलत कन्हाई है
घने काले मेघ छाये, जल की फुहार लाये
झूम रहे लोग सभी, प्रीत ऋतू आई है
झूल रहा अंग अंग, प्रकृति के संग संग
वसुधा भी जैसे आज, लेती अंगडाई है ..

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"मालिनी छंद "
मालिनी 15 वर्णों का छन्द है, जिसका लक्षण इस प्रकार से है:

अल्प सी मिली जानकारी के अनुसार मालिनी छन्द में प्रत्येक चरण में नगण, नगण, मगण और दो यगणों के क्रम से 15 वर्ण होते हैं और इसमें यति आठवें और सातवें वर्णों के बाद होती है

गुरुजनों, अग्रजों और मित्रों से अनुरोध है की मार्गदर्शन कर मुझे कृतकृत्य करें

घुमड़ घुमड़ आयें, मेघ रागें सुनाएँ |
थिरक थिरक नाचें, नार झूला झुलाएँ |
महक महक जाएँ, पुष्प गंधें उड़ायें |
मधुर मधुर ताने, छेड़ संगीत गाएँ ||

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श्रीमती राजेश कुमारी जी (कुण्डलियाँ छंद )

झूले तीजों के सजे ,देव शिवा का धाम 

जन-जन के मुख पे रहे,शिव शंकर का नाम  

शिवशंकर का नाम ,जपें उपहार सजावें

गावें कजरी गीत ,प्रिय घन नेह बरसावे

कर सोलह श्रृंगार ,मगन हो सुध- बुध भूले 

सजन बढाये पेंग ,सजनी प्यार से झूले ||

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श्री योगराज प्रभाकर

छंद कहमुकरी  (४ चरण, प्रति चरण १६ मात्रा) 
(
प्रतियोगिता से अलग)
.

आगे पीछे ऊपर नीचे

मुझे घुमाये मुझको खींचे

उसके दामन में जग भूले 
ऐ सखि साजन, न सखि झूले
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आसमान को पाँव दिखाए 
मेरी जान हलक में आये
भायें फिर भी ऎसी डींगें
ऐ सखि साजन, न सखि पींगें
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इसका छूना ठंडा फाहा

दिल से पूजा, दिल से चाहा
इसको जांचा इसको परखा
ऐ सखि साजन, न सखि बरखा
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दिल की बात सभी वो जानें
मुझको मेरे जितना जानें
रोज़ मिलातीं उनसे अखियाँ 
ऐ सखि साजन, न सखि सखियाँ
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शाम सलोना रूप निराला
जिसने दीवानी कर डाला 
उसकी आमद करदे पगरी   
ऐ सखि साजन, न सखि बदरी

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श्रीमती राजेश कुमारी

(रूप घनाक्षरी )३२ वर्ण, १६ पर यति, इकत्तीसवा वर्ण गुरु बत्तीसवां लघु 

पड़े हैं झूले सावन के झूमे तरु की डाल,गीत सुनाएँ गोपियाँ पेंग बढाए गोपाल ||

ओढ़े मेघ चुनरिया कभी धानी कभी लाल,श्रृंगार कर सुहागिनें जाती हैं ससुराल ||

भाद्रपद कृष्ण तृतीया को आता ये त्यौहार,कजली गावें लडकियाँ झूलन की बहार||

बूढ़ी तीज, वृद्ध तृतीया दोनों एक ही जान,वधुवें झूला झूलती बायना करी दान|| 

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सावन गीत

(छंद का नाम न देने के कारण इसे प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं किया जा सकेगा)

 

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

पार्वती ने बोई हरी -हरी मेहँदी (२)

शिव शंकर जी भांग उगाय ,बुंदिया पड़ने लगी

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

पार्वती ने कूटी हरी- हरी मेंहदी (२)

शिवशंकर ने घोट लियो भांग ,बुंदिया पड़ने लगी

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

पार्वती की रच गई हरी -हरी मेंहदी (२)

शिवशंकर को चढ़ गई भांग ,बुंदिया पड़ने लगी 

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

पार्वती जी नहाई हल्दी चन्दन  के लेप से (२)

शिवशंकर भभूत लगाय ,बुंदिया पड़ने लगी 

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

पार्वती ने पहनी मुतियन की माला (२)

भोले शंकर ने नाग लिपटाय,बुंदिया पड़ने लगी 

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी

पार्वती ने डाले रेशम के झूले (२)

शिवशंकर जी पेंग बढ़ाय ,बुंदिया पड़ने लगी 

शिव शंकर चले कैलास बुंदिया पड़ने लगी||

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संजय मिश्रा 'हबीब'

समस्त सम्माननीय गुरुजनों/मित्रों को सादर संध्या वंदन...किंचित व्यस्तता इस मुग्धकारी आयोजन में सक्रिय उपस्थिति नहीं दर्ज कराने दे रही है... इस हेतु सादर क्षमायाचना सहित एक प्रयास सादर प्रस्तुत है.... 

पञ्चचामर छंद (प्रतियोगिता से पृथक)

(मेरे निकट उपलब्ध जानकारी के अनुसार सम वार्णिक छंद/प्रत्येक चरण में १६ वर्ण/वर्णों में लघु-गुरु;लघु-गुरु का निश्चित विन्यास/गुरुजनों से मार्गदर्शन  निवेदन सहित)

सुगन्ध श्रावणी सुहावनी बिखेरती धरा।

सुरम्य शोभता जहान है हुआ हरा भरा।

यहाँ वहाँ दरख्त डोर बांध झूलना सजा।

झुला रहे सहर्ष एक दूज को सखी सखा।

 

निहारती वसुंधरा खिली खिली बहार को।

विदग्ध धूप स्वेद सिक्त, ढूंढती फुहार को।

विभाष नैन में लिए सखी सजी हिंडोल में। 

विलोल गीत गा रही मिठास बोल बोल में।

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पार्श्व दृष्टि

मयूर पांख शीश में सजाय खूब सोहते।

सुनात बांसुरी मुरारि राधिका विमोहते।

सखी सभी चिढ़ा रहीं झुला रहीं दुलार में।

लजात राधिका हंसी उठात नैन रार में।   

 

चले न ग्रीष्म का पता कि मेघदूत आ गये।

निशीथ हो कि भोर आसमान में अटा गये।

अजेय मेघ वृन्द में उमाह अंग अंग है।   

बजा रही निशा मृदंग, माँद नींद भंग है।

 

खुशी उलेलती कभी उछाह को उड़ेलती।    

नदी उफान ले चली अकाल को धकेलती।

किसान मस्त सीर काँध बोह झूमते चले।

किशोर-बाल कीच में किलोलते मिलें गले।

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श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

॥सवैय्या छन्द (24 मात्रा)॥

घन घोर घटा गरजे बदरा जियरा हमरा डरि जात सखी।
बिजुरी चमकै चकचौंध मचै तनिको नहि पंथ देखात सखी॥
पिय हाट गये कहूं बाट रहे बढ़िजात यहां बरसात सखी।
बहु रैन गई अब चैन नहीं मन मैन न मो सों मनात सखी॥

मनभावन सावन आवन के जब बात सुनै हमरो जियरा।
मनप्रीत के दीप जलाइ पिया जब आनि धरे दिल के दियरा॥
कहने को तो दीप जलावत हैं हरषावत हैं हमरो हियरा।
मतवारे पिया की प्रेम पियारी दिनरात जपूं पियरा पियरा॥

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श्री अशोक कुमार

(छंद का नाम न दिए जाने की वजह से इसे प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं किया जा सकेगा )

हर  बरस आती है ऋतू ये,

हर  बरस लगता यहाँ मेला,

हर बरस आता यहाँ सावन,

हर बरस लगता यहाँ झूला.

 

हर बरस आती हैं सखियाँ,

झूम झूम के गाती सखियाँ,

पुरुषों पर भी छाया सावन,

देख देख इठलाती सखियाँ.

 

मौसम सारा हुआ रंगीला,

हरियाली का छाया पहरा,

सावन कि देखो पड़ी फुहारें,

खिल गया हर चेहरा चहरा.

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श्री दिनेश रविकर

कुंडली

(1)
सकल लुनाई ईंट घर , दीमक चटा किंवाड़ ।
घर टपके टपके ससुर, गए दुर्दशा ताड़ ।
गए दुर्दशा ताड़, बांस का झूला डोला ।
डोला वापस जाय, ससुर दो बातें बोला ।
करवा ले घर ठीक, काम कुछ पकड़ जवाईं ।
पर काढ़े वर खीस, घूरता सकल लुनाई ।।

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उपरोक्त के साथ में यह दोनों प्रतिक्रिया कुंडलिया भी हैं


इत पीपल उत प्रीत पल, इधर बाँस उत रास ।
इत पटरे पर जिन्दगी, पट रे इक ठो ख़ास ।
पट रे इक ठो ख़ास, आँख में रंगीनी है ।
सुन्दरता का दास, चैन दिल का छीनी है ।
प्रभु दे डोला एक, बढ़े हरियाली प्रतिपल ।
डोला मारूँ रोज, कसम से आ इत पीपल ।।

सावन में भैया घरे, पत्नी करे प्रवास |
यहाँ अतिथि दो आ गए, पर खाली आवास |
पर खाली आवास , एक एम् टेक एडमीशन |
एम् बी ए में अन्य, व्यस्तता बढती भीषण |
बैठ कुंडली मार, देखता फिर भी हर फन |
क्या बढ़िया श्रृंगार, मस्त आया है सावन ||

 (2)

रंग-विरंगे पट पहर, दूर शहर की हूर |
किये साज-सज्जा सकल, महज तीन लंगूर |
महज तीन लंगूर, पहर दो झट पट बीता |
झूल चुकी भरपूर, नहीं आया मनमीता |
ये सावन की घास, लगा के रखी अड़ंगे |
हरा हरा चहुँ ओर, दिखें न रंग-विरंगे ||

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डॉ० प्राची सिंह

छंद कुंडलिया

सावन झूमे सोहनी , मस्ती में महिवाल,

झूले की पींगें चढीं , ओढ़ चुनरिया लाल,        
ओढ़ चुनरिया लाल, पहिन घाघर जयपुरिया,
झांझर, कंगन, हार, जुत्ती है अमृतसरिया,
भिजवाया शृंगार, बहुत रसिया हैं साजन,
रंग ले गयीं साथ, कहें मुझसे इस सावन ..
________________________________
सोनी बिन फीका लगे, माहिवाल का नूर,
सावन है, बरसात है, पर सजनी है दूर,
पर सजनी है दूर, विरह मन कैसे भूले,
बिन सोनी, महिवाल, संग यारों के झूले,
ऊँची पींग चढ़ाय, छोड़ कर सूरत रोनी,

बीच गगन मुस्काय, याद आयी जो सोनी..

(संभवतः किसी तकनीकी दोष की वजह से डॉ० प्राची सिंह की रचनायें  मुख्य थ्रेड में दिखाई नहीं दे रही हैं )

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Replies to This Discussion

धन्यवाद भाई नीरज जी !

आदरणीय अम्बरीषजी, आपने आयोजन-सह-प्रतियोगिता अंक - 16 की सभी रचनाओं को संग्रहीत कर पाठकों पर बहुत बड़ा उपकार किया है.

इस हेतु आपका सादर धन्यवाद.

धन्यवाद भाई सौरभ जी ! वस्तुतः उपकृत तो यह बंदा  हुआ है ! :-)

जय हो आदरणीय !

सादर

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