For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मानवीय विकासगाथा में काव्य का प्रादुर्भाव मानव के लगातार सांस्कारिक होते जाने और संप्रेषणीयता के क्रम में गहन से गहनतर तथा सुगठित होते जाने का परिणाम है. मानवीय संवेदनाओं को सार्थक अभिव्यक्ति नाट्यशास्त्र और इसकी विधाओं से मिली जहाँ से काव्यशास्त्र ने अपने लिए आवश्यक अवयव ग्रहण किये. इन्हीं अवयवों के कारण ही प्रस्तुतियाँ क्लिष्ट से क्लिष्टतर होती गयीं और निवेदन गहन से गहनतर होते चले गये. गद्य इसी मानवीय मानसिक विकास का अगला रूप है.

मूलभूत शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद मनुष्य के लिए यह कभी संभव नहीं रहा कि वह केवल उन आगामी क्षणों की प्रतीक्षा करता रहे जब उसे पुनः अपने और अपने आश्रितों के शरीर के संकेतों को संतुष्ट करना भर उसके जीवन का उद्येश्य हो जाय. उसके लिए पेट की अस्मिता के आगे वैचारिकता स्थान लेती रही है. यही वैचारिकता मनुष्य की संप्रेषणीयता को समृद्ध करने का कार्य करती है. अनादिकाल से !  काव्यशास्त्र के यही आधारभूत अवयव कविता को समझने और कविता के माध्यम से वैचारिक संप्रेषणीयता को समझाने के भी मूल रहे हैं.
 
क्यों न आज हम यही समझने का प्रयास करें कि कविता वस्तुतः है क्या.

भाव संप्रेषण की वह शाब्दिक दशा जो मानवीय बुद्धि के परिप्रेक्ष्य में मानवीय संवेदना को तथ्यात्मक रूप से अभिव्यक्त करे, कविता होती है. सपाट भावाभिव्यक्ति सहज और सुगम भले ही हो तथ्यात्मकता को संवेदनाओं का साहचर्य और संबल नहीं दे सकती. इसीकारण भावुकता का अर्थवान स्वरूप जहाँ कविकर्म है वहीं उसकी शाब्दिक परिणति कविता.

इसका अर्थ यह हुआ कि कविता शब्द-व्यवहार के कारण भाषायी-संस्कार को भी जीती है. इसी कारण भाषा -व्यवहार और शब्द-अनुशासन कविता के अभिन्न अंग हैं. अर्थात, भावुक उच्छृंखलता कभी कविता हो ही नहीं सकती. जबकि यह भी उतना ही सत्य है कि भावुकता ही कविता का मूल है. यानि, मात्र एक तार्किक शब्द अपने होने मात्र से कविता का निरुपण कर सकता है. क्योंकि शब्द मात्र इंगित न होकर भाव-भावना-अर्थ का भौतिक समुच्चय हैं. शब्द वृत्तियों के भौतिक निरुपण की भौतिक इकाई हैं. वृत्तियों के निर्वहन में शब्द एक बडी भूमिका निभाते हैं. अतः चित्त का विवेक, यानि बुद्धि, कविता की उत्पत्ति और समझ दोनों के लिए अनिवार्य है.

कविता संप्रेषण के कई साधन हो सकते हैं तथा इन साधनों की कितनी ही प्रासंगिक, अप्रासंगिक विधायें ! छंदबद्धता, छंद-उन्मुक्तता इसके मुख्य साधन हैं और मात्रिकता, गणना, तुकान्तता, गेयता, अलंकार, संप्रेष्य तथ्य आदि-आदि उन साधनों के अवयव.

वर्तमान में व्यावहारिकता के लिहाज से कविता के दो रूप हो सकते हैं -
पहला, कविता, जो भाव-विस्फोट को शब्दों की ऐसी काया दे जो गेय या वाच्य हो
दूसरा, कविता, जो प्राणिगत भावोद्गार को शब्दों का ऐसा प्रारूप दे जिसे बुद्धि द्वारा साधा जा सके

इस तरह से कविता सुनने-गाने के साथ-साथ पढ़ने-गुनने और उसके आगे मनन-मंथन की भी चीज हो जाती है.

इस लिहाज से हम कविता की उत्पत्ति के दो रूप मान सकते हैं -
पहला, मानसिक एकाग्रता, जिसके कारण संप्रेषण हेतु निरीक्षण संभव हो पाता है
दूसरा, सतत शाब्दिक अभ्यास ताकि कथ्य सार्थक रूप से संप्रेष्य का निर्वहन कर सके.

वस्तुतः कविता का मुख्य कार्य श्रोता-पाठक की भावदशा को संवेदित करना होता है. इस आधार पर हम यह कहने की स्वतंत्रता ले सकते हैं कि जिस शब्द-व्यवहार से मानवीय संवेदनाएँ प्रभावित हो जायें वही कविता है. इसी कारण ऊपर कहा जा सका है कि एक सान्द्र शब्द अपने आप में एक समृद्ध कविता की भावदशा को जी सकता है. लेकिन, इस निवेदन के साथ कि इस उच्च अवस्था की अनुभूति के पहले भाव-साधना तथा शब्द-साधना के घोर तप से गुजरना होता है. कविता का कोई रूप क्यों न हो उसका हेतु और उसकी प्रासंगिकता मानवीय संवेदना को संतुष्ट या प्रभावित करना है. इस विचार से कविता गेय हो, वाच्य हो या पठनीय ही क्यों न हो.

पुराने मनीषियों की अवश्यकता और समझ के अनुसार कविता श्रव्य थी. इसी कारण, कविता और छंदों में शाब्दिक चमत्कार को निरुपित करने के लिए अलंकारों की आवश्यकता होती थी. उससे पूर्व नाट्यशास्त्र के नव-रसों के माद्यम से कविता को श्रेणीबद्ध करने का साग्रह प्रयास किया गया ताकि कोई शाब्दिक संप्रेषण मानवीय मनोदशा की आवश्यकता के अनुसार हुए शाब्दिक-निवेदन को प्रतिस्थापित कर सके. आज कविता पठनीय हो गयी है. इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीक्रुत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता. अतः कविता श्रव्य मात्र रह ही नहीं गयी है. अपितु, यह विचारों की अति गहन इकाई भी हो चुकी है.

तो प्रश्न उठना सहज ही है कि क्या ऐसा कोई संप्रेषण कविता है ?
उत्तर में प्रति-प्रश्न होगा, कि क्या ऐसा कोई संप्रेषण व्यवहार में समेकित रूप से मानवीय संवेदना को प्रभावित कर पाता है ?


यदि वास्तव में एक बड़ा वर्ग ऐसे संप्रेषण को समझता है और प्रभावित होता है तो वह कविता है. और, यह कविकर्म की मानसिक सम्पन्नता और श्रोता-पाठक की मानसिक व्यवस्था के संयमित मेल पर निर्भर करता है कि कोई संप्रेषण मानवीय मर्म की किस गहराई तक अपनी पहुँच बना पाता है.

यानि, एक स्तर से नीचे की कविता प्रबुद्ध श्रोता-पाठकों को जहाँ संवेदित या संतुष्ट नहीं कर सकती तो एक स्तर से आगे की कविता कतिपय श्रोता-पाठकों के लिये दुरूह हुई उनसे अस्वीकृत हो जाती है. इस के लिए जहाँ तक संभव हो, दोनों इकाइयों का उत्तरोत्तर मानसिक विकास आवश्यक है. अन्यथा, एक विन्दु के बाद कविता अपने कर्तव्य से गिरती दिखती है, तो श्रोता-पाठक अपने मानसिक, वैचारिक, भावप्रधान विकास से वंचित रह जाते हैं.

Views: 4503

Replies to This Discussion

आदरणीय सौरभ जी 

सबसे पहले तो करबद्ध क्षमा मांगती हूँ इस पोस्ट पर इतनी देर से आने के लिए..कारण कई रहे..पर विलम्ब के लिए सादर क्षमा क्षमा 

मानवीय संवेदनाओं के उत्तरोत्तर विकसित व संस्कारित होते जाने में ही काव्य उद्गम है.. सम्प्रेषण का सुव्यस्थित सुगठित स्वरुप बिना किसी शंका के बहुत उच्चतर वैचारिक विकास की ही दिशा में बढ़ता है.

इस वृहत, शोधाधारित, गहन आलेख में आपने बहुत महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट की हैं... यदि कहूँ की मैं इस आलेख को किसी काव्य शास्त्र के मूल सिद्धांत की समरी (summay) की तरह देख पा रही हूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि जिन मूल बातों को आपने बहुत सांद्रता से लिखा है वो वास्तव में काव्य के उद्भव, काव्य के कारण, काव्य के प्रयोजन, काव्य के तत्व,उनके आधुनिक स्वरुप व कवि कर्म को बहुत गहनता और दायित्वबोध से समझने के बाद ही संभव हैं.

//भाव संप्रेषण की वह शाब्दिक दशा जो मानवीय बुद्धि के परिप्रेक्ष्य में मानवीय संवेदना को तथ्यात्मक रूप से अभिव्यक्त करे, कविता होती है. //

..कविता की यह परिभाषा भावनाओं की तथ्यात्मक प्रस्तुति को मान देती हुई उन सभी रचनाकारों के लिए एक चिंतन का बिंदु प्रदान करती है जो भावनाओं की अनगढ़ अभिव्यक्ति को कविता मान आत्ममुग्धता में हर भावप्रस्तुति को लालायित रहते हैं.

//शब्द मात्र इंगित न होकर भाव-भावना-अर्थ का भौतिक समुच्चय हैं//

..शब्द शब्द अर्थवान होता है, प्राणवान होता है, हर शब्द की अपनी ध्वनि अर्थ प्रभाव व तीव्रता होती है..,इसलिए कविताओं में शब्द शब्द बहुत सजगता से चयनित होना चाहिए..बिलकुल सहमत हूँ. भावनाओं का भौतिक स्वरुप शब्द ही तो हैं.

//कविता सुनने-गाने के साथ-साथ पढ़ने-गुनने और उसके आगे मनन-मंथन की भी चीज हो जाती है//

आदरणीय एक सार्थक कविता की यही तो पहचान है की वो मनन मंथन हेतु सार्थक सकारात्मक तत्व प्रदान करे.....और जो रचना ये प्रदान न कर सके उसकी क्या सार्थकता? साथ ही जो पाठक किसी सार्थक अभिव्यक्ति में भी मनन मंथन का तत्व न ढूंढ सके उसका कैसा पाठक कर्म?

//एक सान्द्र शब्द अपने आप में एक समृद्ध कविता की भावदशा को जी सकता है. लेकिन,  इस उच्च अवस्था की अनुभूति के पहले भाव-साधना तथा शब्द-साधना के घोर तप से गुजरना होता है//

आदरणीय इस कहे पर मैं स्वयं मनन मंथन आनंद में हूँ... भाव साधना व् शब्द साधना के आनंद की अनुभूति में ..:))))) मुग्ध.

//आज कविता पठनीय हो गयी है.इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीक्रुत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता.//

आदरणीय इस कहे को मैं शायद पूरा नहीं समझ पायी हूँ .. गणितीय प्रारूप कृपया थोडा विस्तार कर दें !!!

//यह कविकर्म की मानसिक सम्पन्नता और श्रोता-पाठक की मानसिक व्यवस्था के संयमित मेल पर निर्भर करता है कि कोई संप्रेषण मानवीय मर्म की किस गहराई तक अपनी पहुँच बना पाता है.//

...बिलकुल सही बात है आदरणीय, पाठक जितनी सद्पात्रता से गंभीरता से तन्मयता से रचना को पढता है, उसी अनुरूप वो उसका अर्थ ग्रहण करता है... कुछ के ऊपर से निकल जाती है रचना, कुछ शाब्दिकता में ही वाह वाही करने लगते हैं और कुछ गंभीर ही कविता की आत्मा तक पहुँच पाते हैं.

आदरणीय एक ऐसा आलेख प्रस्तुत करने के लिए सादर साधुवाद जिसे पढ़ काव्य, कविताकर्म व पाठन धर्म तीनों पर ही गहन मनन चिंतन मंथन के संतृप्त कर देने वाले सांद्रित तत्व प्राप्त हुए.

इस महती प्रस्तुति के लिए पुनः सादर धन्यवाद आदरणीय.

आदरणीया प्राचीजी,

आपने जिस तरह से प्रस्तुत लेख के विन्दु-प्रति-विन्दु को अनुमोदित किया है वह मेरे प्रयास को सार्थकता प्रदान करता है.

//आज कविता पठनीय हो गयी है.इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीक्रुत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता.//

आदरणीय इस कहे को मैं शायद पूरा नहीं समझ पायी हूँ .. गणितीय प्रारूप कृपया थोडा विस्तार कर दें !!!

कविताकर्म का मूल भाव-संप्रेषण ही था जो हृदय की गहाइयों से उठती भावनाओं को मिले सार्थक और सटीक शब्दों के माध्यम से संभव होता था. बाद में या कविता-प्रयास के आदि में या उसके समानान्तर ही विधान बने. ऐसा इसलिए कह पा रहा हूँ कि, कहते हैं, क्रौंचवध से आहत हो कर आदिकवि के स्वतःस्फूर्त भाव-शब्द अनुष्टुप छंद में थे. उनके वही कुछ शब्द कविताई का प्रथम रूप थे.

कालांतर में भाषा अपनी गति से चलने लगी और उसके रूप में दर्शनीय अंतर होते गये.

लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ संप्रेषणों में भी क्लिष्टता आने लगी. इतना कि कबीर को अत्यंत सहज कवि मानने वाले अक्सर यह भूल जाते हैं कि उन्हीं कबीर के नाम रहस्यमय कविताई भी है और उलटबासियाँ भी हैं जो काव्यकर्म की श्रेणी में विशिष्ट स्थान रखती हैं. बिहारी के दोहों से क्या नहीं संप्रेष्य होता ! ये अनेकानेक उदाहरणों में से मात्र दो उदाहरण हैं.

फिर अनेकानेक छंदों और स्वरूपों के विधानों से होती हुई कविता छंदों से भी आज़ाद हो गयी और आगे वैचारिकता का वो रूप साझा करने लगी जो उसे गद्य के समकक्ष तक ले गया है. कविता जो एक समय गाने और सुनने की चीज हुआ करती थी, पढ़ने और मनन करने की चीज होती गयी. उसकी भाषा सूत्रवत होती गयी.

वैचारिकता को साझा करने के क्रम में कविता कई चिह्न भी स्वीकार करने लगी जो वस्तुतः या तो गद्यात्मक संप्रेषण का हिस्सा हुआ करते थे या गणीतीय प्रस्तुतियों का हिस्सा थे. जैसे, कॉमा, अर्द्धविराम, डैश, विन्दु, सेमीकॉलन, विस्मयादिबोधक और प्रश्नवाचक चिह्न आदि-आदि. इन सभी चिह्नों का प्रारम्भ में कविताओं में कोई स्थान नहीं हुआ करता था. कारण कि कविताएँ गायी, सुनायी और सुनी जाती थीं. तभी तो अलंकारों की उपयोगिता हुआ करती थी जिसका प्रयोग रचनाकार कविताई में ध्वनि-चमत्कार के लिए किया करते थे. स्वर, ध्वनि और शब्दों का  यह महत्त्व आज कितना और कहाँ है ? 

अल्पविराम, सेमीकॉलन या डैश या ऐसे ही अन्य चिह्नों को आप एक कवि के रूप में कैसे बोल कर सुना सकते हैं ?

इसी तथ्य को मैं बार-बार कविताकर्म को क्लिष्ट से क्लिष्टतर होता कहता रहा हूँ.

वस्तुतः इन सबके बावज़ूद कविता ज़िन्दा है. और, यह अपने इन रूपों में तबतक ज़िन्दा रहेगी जबतक उसका हेतु मनु्ष्यों की मूल भावनाओं को संवेदित कर उसे मनुष्यता के लिए आग्रही बनाना रहेगा.   

मेरे कहने का आशय यही था.

सादर

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"दोहावली***आती पूनम रात जब, मन में उमगे प्रीतकरे पूर्ण तब चाँदनी, मधुर मिलन की रीत।१।*चाहे…"
10 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-176
"स्वागतम 🎉"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२ * कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१। * महल…See More
Thursday
Admin posted discussions
Tuesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Monday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
Monday
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"खूबसूरत ग़ज़ल हुई, बह्र भी दी जानी चाहिए थी। ' बेदम' काफ़िया , शे'र ( 6 ) और  (…"
Jul 6
Chetan Prakash commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"अध्ययन करने के पश्चात स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उद्देश्य को प्राप्त कर ने में यद्यपि लेखक सफल…"
Jul 6

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"सुविचारित सुंदर आलेख "
Jul 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत सुंदर ग़ज़ल ... सभी अशआर अच्छे हैं और रदीफ़ भी बेहद सुंदर  बधाई सृजन पर "
Jul 5
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। परिवर्तन के बाद गजल निखर गयी है हार्दिक बधाई।"
Jul 3

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service