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आदरणीय वीरेंदर जी बहुत ही शानदार लघुकथा हुई है. आपने अपने प्रस्तुति से प्रदत्त विषय के साथ पूरा न्याय किया है. इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई.
वैसे इस विधा का नया अभ्यासी हूँ लेकिन एक बात मन में आई इसलिए एक निवेदन कर रहा हूँ कि कि इन पंक्तियों के बाद लघुकथा समाप्त हो जाती तो बेहतर था ..इसके बाद बस आपकी पंचलाइन की आवश्यता है -
"गुस्ताखी माफ़ असलम साहब।" इस बार हाजी साहब के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी। "प्रेस कांफ्रेंस तो हो चुकी है और अभी अभी उसे मुल्क समेत पूरी दुनिया ने 'लाइव' देख-सुन भी लिया है।"
हाजी साहब की जैकेट में छुपा कैमरा एक 'पियादे' से शह को मात में बदलते देख रहा था.
इसके बाद का यह विवरण मुझे अन्यथा लगा-
असलम साहब हैरान परेशान से दिखाई देने लगे। हाजी साहब अपनी नज़रे उनपर गड़ाते हुए बोले। "असलम साहब! आप की शतरंजी बिसात तो मैं रात ही समझ गया था इसलिए वज़ीरे-ए-आजम की इज़ाज़त से मैंने ये स्टिंग का खेल खेला है, जनाब! मैंने शतरंज तो नहीं खेली पर इतना जानता हूँ कि एक 'पियादे' से भी शह को मात में बदला जा सकता है।
सादर
आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ आदरणीय उस्मानी जी
हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी!सुंदर प्रस्तुति!
प्रदत्त विषय पर बहुत प्रभावशाली रचना आ वीर मेहता जी । ये शह और मात के खेल खूब खेले जाते हैं सियासी गलियारों में , बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
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