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'चित्र से काव्य तक' प्रतियोगिता अंक-८ की सभी रचनाएँ एक साथ :

श्री योगराज प्रभाकर जी

(प्रतियोगिता से अलग दोहावली)

 

हो ना पाए जब कभी, जोश होश का मेल,

छोटी सी इक भूल भी, रचे मौत का खेल ! (१)


खतरों से लड़ते हुए, हो जाता है ज्ञान.
जीना दूभर है बड़ा, मरना है आसान ! (२)  

मंजिल पे नज़रें रहें, मन में हो आनंद, 
सफ़र कटेगा प्रेम से, रहें चाक चौबंद ! (३)


बिन हेल्मट के चल दिया, तू गाफिल इंसान !   
जान कि तेरी जान ही, घर वालों की जान ! (४)


सूझवान इंसान को, साबित करे उलूक,
इस खतरे की राह पे, छोटी सी इक चूक (५)

कुआँ मौत का जिंदगी, सब कुछ लागा दाँव,
यम की नगरी को गया, ठिठके जिसके पाँव ! (६)   

इसको मजबूरी कहें, या फिर अपना भाग, 
हर संकट के सामने, बड़ी पेट की आग ! (७)

खतरों से लड़ते हुए, हो जाता है ज्ञान.
जीना दूभर है बड़ा, मरना है आसान ! (८)

खुद-ब-खुद ही आन कर, क़दम चूमती जीत,
चल कर देखो तो ज़रा, धारा के विपरीत ! (९)

कोई दीवाना कहे, कहता कोई वीर,
कोई भी समझे नही, मजबूरी की पीर !  (१०)

हँसते हँसते सह रहा, जो दुख दर्द अथाह,
उसकी नजरों से नहीं, ओझल उसकी राह ! (११)

इक दूजे के साथ जो, कला और विज्ञानं !
कदम चूमती मंजिलें, बने निराली शान !  (१२)


माना मौसी मौत को, माने तू मतिमूढ़
नंगे सर वाहन चढ़े, काहे तू आरूढ़ ! (१३)

पल भर में जीवन हरे, तेजी का उन्माद
देर भली है मौत से, सदा रहे ये याद  ! (१४)


पूरा पूरा संतुलन, पूरा पूरा ध्यान,
खो जाएगी जिंदगी, भूले गर ये ज्ञान ! (१५)


चाहे कितना भी बने, कोई चतुर सुजान,
जान मुसीबत में पडी, भंग हुआ जब ध्यान !  (१६) 

खतरों से ही खेलना, जिसकी वाहिद चाह,
फिर उसने अंजाम की, कब कीन्ही परवाह !  (१७)

कोलाहल जो मौत का, जान मधुर संगीत,
सारी दुनिया जानती, डर के आगे जीत ! (१८ )

 

चंद रुपइए रोज़ के, चंद पलों की दाद !

इस मुफलिस जांबाज़ को, और नहीं कुछ याद ! (१९)

मजबूरी के सामनें, सब खुशियाँ मंसूख,  
सबसे बालातर हुई, बस कुनबे की भूख ! (२०)

__________________________________________________

 

श्री आलोक सीतापुरी

1.

(प्रतियोगिता से अलग)

बाज़ी लगती जान की, तब यह सजता साज,
मौत कुँए में हो रही, जीवन की परवाज़,
जीवन की परवाज़, ना चोरी बेईमानी,
करतब कला कमाल एकदम हिन्दुस्तानी,
कहें सुकवि आलोक नहीं कोई लफ्फाजी|
हाय टके के मोल लगी प्राणों की बाज़ी||

 

2.

(प्रतियोगिता से अलग)

मेला रेला है यहाँ सर्कस का मैदान.

मौत कुआँ लगता मगर, जीवन भरे उड़ान.

जीवन भरे उड़ान, नहीं खतरों की सीमा.

ये गरीब फ़नकार, न इनका कोई बीमा.

कहें सुकवि आलोक नीम पर चढ़ा करेला.

बिन सिर रक्षक टोप, मौत से करे झ-मेला..

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श्री विक्रम श्रीवास्तव
जाने क्यों तुम इसे 

मौत का कुआं कहते हो

मेरे लिए तो इसका हर ज़र्रा

ज़िंदगी से बना है

कभी ध्यान से देखो 

ये ज़िंदगी का कुआँ है

 

जैसे ज़िंदगी हमें

गोल गोल नचाती है 

वैसे मेरी मोटर भी 

चक्करों मे चलती है

रंग बदलता है जीवन 

नित नए जैसे

वैसे ही ये अपने

गियर बदलती है

ध्यान भटकने देना 

दोनों जगह मना है

कभी ध्यान से देखो 

ये ज़िंदगी का कुआँ है

 

रफ्तार सफलता की

ऊपर ले जाती है 

और आकांक्षा गुरुत्व है 

संतुलन उस से ही है

यहाँ टिकता वही है

जो सामंजस्य बना चला है

कभी ध्यान से देखो 

ये ज़िंदगी का कुआँ है


छोड़ो इन बातों को

ये सब तो बस बातें है

कभी आओ मेरे घर

मेरा घर देखो

इस कुयेँ के कारण ही

आज वहाँ भोजन बना है 

फिर कैसे कहते हो तुम

कि ये मौत का कुआँ है

 

कभी ध्यान से देखो 

ये ज़िंदगी का कुआँ है

___________________________________________________

अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रतियोगिता से अलग)

1.

'सात दोहे'
लगी रेस है मौत से, गयी जिन्दगी जीत.
जान हथेली पर लिए, साथ निभाए प्रीत..

पढ़ा लिखा तो क्या हुआ, उल्टी चले बयार.
वाह-वाह ही साथ में,  रूठ गया है प्यार..

नहीं पास है नौकरी, माँ भी है बीमार.
निशि दिन खेलूँ मौत से, सहूँ समय की मार.. 

कई बार मैं हूँ गिरा, हुआ बहुत बदनाम.
चींटी से ली प्रेरणा, तब बन पाया काम..

फिर भी नहीं निराश मैं, निज को साधूँ यार
अपने भी दिन आयेगें, होगा बेड़ा पार.. 
  
हुई मौत से दोस्ती, साहस का आभार.
मैंने पाया है यहाँ, प्यार प्यार ही प्यार..

कुआँ मौत का जिन्दगी, खतरों का है खेल,
समयबद्धता साथ दे, पार लगाए मेल..

2.

(प्रतियोगिता से अलग)

हाइकू

 

जूं जूं जूं सर्र

हो फटफटिया

काँपे दीवार

 

ना हेलमेट

ना ही मौत का डर

है ये जांबाज़

 

जूते नहीं हैं 

छोरा बेपरवाह

कीमती जान

 

गाफ़िल इन्सां

कलेजा गज़ब का

दिलवाला है

 

दिल दहलाए

होश तक उड़ा दे

तेज रफ़्तार

 

तेज गति से

समयबद्ध कर्म

है सामंजस्य 

 

हर जगह

समग्र संतुलन

है आवश्यक

 

पेट की आग

पालता परिवार

कुआँ मौत का

 

मौत का खेल

कैसा मनोरंजन ?

देखते लोग

 

3.

(प्रतियोगिता से अलग)

एक कुण्डलिया:

डरता खतरों से नहीं, खतरों का यह खेल.
जमा हुआ जाबांज यह, पार लगाए मेल.
पार लगाए मेल, सदा जीवन में हमको.   
करता बेड़ा पार,  दूर रखता है गम को .
धीर-वीर-गंभीर, सदा धीरज ही धरता.
कायर समझें लोग, मौत से जो भी डरता..

 

4.

(प्रतियोगिता से अलग)

एक छंदमुक्त रचना :

 

उभरता है शोर

फट-फट-फट-घर्र-घर्र-घर्र

शोर या संगीत?

कुँए के पटरों का कम्पन

दहलते दिल

दाँव पे जिन्दगी

सांसत में जान

चक्करदार सफ़र

वह भी बिना हेलमेट व जूतों के

हर पल मौत

मौत पर तालियाँ

तालियों पे तालियाँ

क्या खूब तमाशा

वाह रे इंसान!  वाह?

जीते हैं तो सिर्फ अपने लिए ही.......?

उससे तो भला

कुआँ मौत का

पोसे जिन्दगी को !!!

 

5.

(प्रतियोगिता से अलग)

एक ग़ज़ल

जान की बाजी लगाते आये हैं,

जिन्दगी के गीत गाते आये हैं.

 

जिन्दगी के साथ हर परवाज़ में

पंख अपने फड़फड़ाते आये हैं.

 

मौत से टक्कर जो लेते हर घड़ी ,

जिन्दगी अपनी बनाते आये हैं

 

मौत का नाजुक कुआँ यह देखिये,

प्यार से जीवन सजाते आये हैं.

 

तालियाँ भातीं हैं सबको देखिये,

प्रेरणा के स्वर सजाते आये हैं

___________________________________________
श्री दिलबाग विर्क 

1.

   तांका

          1.   डरें कायर

              खतरों से खेलते

              वीर सदैव

              रख जान तली पे

              जूझते हैं मौत से ।

 

          2.  चाहते सभी

               सुख-चैन से जीना

               पर बेबस

               पापी पेट की क्षुधा

               खेलाए खतरों से ।

 

           3.  अकारण ही

                टकराना मौत से

                वीरता नहीं

                कहलाए मूर्खता

                समझो वीरता को ।

 

2.

जिंदादिली

 

      तालियों की गड़गड़ाहट

      और

      पेट की भूख

      कर देती है मजबूर 

      मौत के कुएँ में उतरने को 

      यह जानते हुए कि

      यह वीरता नहीं

      मूर्खता है

      लेकिन

      बाजीगरी

      कोई चुनता नहीं शौक से

      यह मुकद्दर है

      गरीब समाज का  

      और इस मुकद्दर को

      कला बनाकर जीना

      जिंदादिली है

      और यह जिंदादिली

      जरूरी है क्योंकि

      जिंदगी जीनी ही पड़ती है

      चाहे रो के जीओ

      चाहे हंस के जीओ

      चाहे डर के जीओ

      चाहे जिंदादिली से जीओ ।

 

3.

खतरे ही खतरे यहाँ, मिलते हैं हर ओर

करना डटकर सामना, ना पड़ना कमजोर ।

ना पड़ना कमजोर, जूझना तुम हिम्मत से 

खुशियों की सौगात, छीन लेना किस्मत से ।

होता है जो वीर, मौत के मुँह में उतरे 

कामयाब है विर्क, उठाए जिसने खतरे ।

_________________________________________

 

श्री अविनाश बागडे

1.

करतब दिखा रहा है बंदा,सब कहते हैं खेल.

करा रहा है उससे ये सब,लकड़ी नून और तेल!

लकड़ी नून और तेल,पेट की आग बुझाने,

चक्कर पे चक्कर कितने? चक्कें ही जाने

करता है अविनाश बंद! ये बातें अब सब.

 

2.

(प्रतियोगिता में सहभागी नहीं)

 

प्रभु!  ये कैसा भाग

जान हथेली पर

बुझाने  पेट की आग!!!!!(१)

.

.

महज़ जोशो-जूनून 

या फिर मामला

लकड़ी.तेल.नून !!!(२)

.

.

जीवन चक्करदार सही

जीत किसी की भी 

हौसलों की हार नहीं.(३)

.

.

दृढ़ता व् एकाग्रता

पेट से निकलता

जीवन का रास्ता!!!(४)

.

.

गहरा  मौत का कुआँ

उससे गहरी है

माँ-बाप की दुआ.(५)

.

.

मौत आएगी जो आनी है

मुझे तो अभी

जिंदगी बचानी है.(६)

.

.

मिटा रहे हो, शाबास!

मौत के कुँए  से

ज़िन्दगी की प्यास!!!(७)...... ........

 
3.

(प्रतियोगिता में सहभागी नही)

कविता.

जन्म से ही होते हैं जो

खतरों के खिलाडी

वो

हुनर काम आता है

जब आती

पेट भरने की बारी!!!

काश!

उनका ये हूनर 

हम

कहीं और भी

काम ला पाते.

कुछ नहीं

तो

सरहद की सुरक्षा के

हस्ताक्षर ही कहलाते.

छोटे-छोटे बच्चों का

रस्सी पर संतुलन 

बना के चलना

हम

दांतों तले उंगलियाँ दबा के

देखते हैं

तमाशबीन बन

अपनी आँख सेंकते हैं.

काश! उन बच्चों को

हिम्मत-भरा हाँथ

मिल जाये,तो

ये जज्बा

ओलम्पिक क़े मेडल में बदल जाये!!!!!!

________________________________________ 

श्री संजय मिश्रा 'हबीब'

1.

ये दुनिया इक कूप है, जीवन मृत्यु खेल ।

जीव न मृत्यु सोच तू, जब तक जीवन खेल ।1।

 

खुद की ताकत पर सदा, इस जीवन को साध ।

पाँव चलेंगे गगन में, जीवन भर निर्बाध. ।2।

 

जीवन पथ में जो डरा, जीवन देत गंवाय ।

जीवन रीता ही रहे, जीव न कछु उपजाय ।3।

 

हिम्मत बहता है सदा, संग रुधिर बन होश ।

हिम मत बनने दे कभी, दह्काया रख जोश ।4।

 

कदम कदम तकलीफ है, कदम कदम पे खार ।

कद मत छोटा आस का, एकदम कर तू यार ।5।

 

अपने हाथों भाग है, ले संवार तू भाग ।

बैठे भाग न जागता, भाग जगाने भाग  ।6।

 

मंजिल नज़रों में सदा, सदा रहे स्पष्ट ।

बड़ा  स्व-विश्वास करे, छोटे सारे कष्ट ।7।

 

2.

कुण्डलिया 

|| भरता घेरा मौत का, बहु जीवन में रंग

इनके परिजन के ह्रदय, धडके इंजन संगं

धडके इंजन संग, रोशनी होती घर में

जब चलते ये वीर, मौत भी कांपे डर में

जितनी हो रफ़्तार, चले रोमांच बिखरता

छीन मौत से सांस, जोश जीवन में भरता ||

 

3.

हम मौत को धत्ता बताते आये हैं ।

हम जिंदगी के गीत गाते आये हैं ।1।

 

वो हौसलों के सामने टिक पाये ना,

हम पर्वतों को भी झुकाते आये हैं ।2।

 

अपनी कला के मायने क्या होते हैं,

थमते दिलों को यह बताते आये हैं ।3।

 

यह मौत का गड्ढा नहीं है दोस्तों,

हम तो यहाँ जीवन बिताते आये हैं ।4।

 

जो बल दिया है तालियों ने सच हबीब,

हम जिंदगी को आजमाते आये हैं ।5।

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श्री महेंद्र आर्य

 

मौत का कुआँ नहीं , जीवन का चक्र है
सीधी सरल नहीं, चाल जिसकी वक्र है
मानव मशीन पर, करता सवारी जब
खेलता है जीवन से, मौत का खिलाडी तब
कुआँ है मौत का , पेट में बना हुआ
घूमती है भूख जब , तन मन तना हुआ
कोल्हू के बैल सा , घूमता है आदमी
साँसों के नशे में झूमता है आदमी

___________________________________________

श्रीमती  मोहिनी चोरडिया

जिंदगी मौत का कुआं ही तो है

जिसके भंवर में फंसे हम सब

चक्कर काटते रहते हैं

चौरासी का |

मोटरसाइकल है हमारा मन

जिस पर चढ़ा रहता है

हमारा लोभ, हमारा लालच

जो हमें रुकने ही नहीं देता ,

कभी ऊपर तो कभी नीचे की

सैर करवाता है

कभी हंसाता, कभी डराता है

मंजिल सामने दिखने पर भी

और- और की रट लगाता है

समझता नहीं की गिरे तो

जितने ऊपर जाएंगें

उतनी ही गहरी खाई मिलेगी

शायद हड्डी- पसली भी ना मिले ,लेकिन

बुलंदियों पर पहुँचने की चाहत ,

सबसे आगे रहने की महत्वांकाक्षा,मानव मन की

इतनी ऊँची होती है कि

गहराई तक नज़र पहुँचती ही नहीं |

इस दुनियाँ में फिर,

मनुष्य ही तो है जो चुनौतियाँ स्वीकार

कर सकता है

डर को डरा सकता है

हार को हरा सकता है

नये कीर्तिमान बना सकता है|

विकास की यात्रा भी यही है

मौत का कुआं तो करतब मात्र है

इंगित करता हुआ कि

योग्यतम ही आगे बढ़ता है

श्रेष्ठ ही ज्येष्ठ बनता है | 

जीवन चुनौती है

जीवन पुरुषार्थ है

जीवन आगे बढ़ने का नाम है |

इस खेल ,इस करतब में ,जीवन में भी यदि

कोई ना हारे ,

एक की जीत दूसरे की हार का कारण न बने

एक दूसरे के पूरक बन दोनों जीतें ,तो

जीवन ऊँचे चढ़ने का नाम है |

______________________________________

 

श्रीमती वंदना गुप्ता

 

यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है

 

ये रोज पैंतरे बदलती ज़िन्दगी

कभी मौत के गले लगती ज़िन्दगी

हर पल करवट बदलती है

कभी साँझ की दस्तक

तो कभी सुबह की ओस सी

कभी जेठ की दोपहरी सी तपती

तो कभी सावन की फुहारों सी पड़ती

ना जाने कितने रंग दिखाती है

और हम रोज इसके हाथों में

कठपुतली बन 

एक नयी जंग के लिए तैयार होते 

संभावनाओं की खेती उपजाते

एक नए द्रव्य का परिमाण तय करते

उम्मीदों के बीजों को बोते 

ज़िन्दगी से लड़ने को 

और हर बाजी जीतने को कटिबद्ध होते

कोशिश करते हैं 

ज़िन्दगी को चुनौती देने की

ये जानते हुए कि 

अगला पल आएगा भी या नहीं

हम सभी मौत के कुएं में 

धीमे -धीमे रफ़्तार पकड़ते हुए 

कब दौड़ने लगते हैं 

एक अंधे सफ़र की ओर

पता भी नहीं चलता

मगर मौत कब जीती है

और ज़िन्दगी कब हारी है

ये जंग तो हर युग में जारी है

फिर चाहे मौत के कुएं में

कोई कितनी भी रफ़्तार से

मोटर साइकिल चला ले

खतरों से खेलना और मौत से जीतना

ज़िन्दगी को बखूबी आ ही जाता है

इंसान जीने का ढंग सीख ही जाता है

तब मौत भी उसकी जीत पर

मुस्काती है , हाथ मिलाती है

जीने के जज्बे को सलाम ठोकती है 

जब उसका भी स्वागत कोई

ज़िन्दगी से बढ़कर करता है

ना ज़िन्दगी से डरता है

ना मौत को रुसवा करता है 

हाँ , ये जज्बा तो सिर्फ 

किसी कर्मठ में ही बसता है 

तब मौत को भी अपने होने पर

फक्र होता है ..........

हाँ , आज किसी जांबाज़ से मिली 

जिसने ना केवल ज़िन्दगी को भरपूर जिया

बल्कि मौत का भी उसी जोशीले अंदाज़ से

स्वागत किया

समान तुला में दोनों को तोला 

 मगर

कभी ना गिला - शिकवा किया 

जानता है वो इस हकीकत को 

यूँ ही नहीं कोई मौत के कुएं में

सिर पर कफ़न बाँधे उतरता है

क्यूँकि तैराक ही सागर पार किया करते हैं 

जो ज़िन्दगी और मौत दोनो से

हँसकर गले मिलते हैं

____________________________________

श्रीमती शन्नो अग्रवाल 

1.

(प्रतियोगिता के बाहर) हाइकू 

भाग रही है     

मोटरसाइकिल

दहले दिल l

 

कुआँ मौत का

है चालक निर्भीक

बिना ही लीक l  

 

खतरनाक

है खेल जीवन का

मन लोहे सा l

 

चला रहे हैं

जान हथेली पर

ये रखकर l

 

बड़ी लगन

हिम्मत वाले हैं

मतवाले हैं l

 

दौड़ लगायें  

आँधी सी रफ़्तार

कई सवार l

 

लचक रहा  

इधर-उधर तन

बना संतुलन l

 

रिश्तों में भी

हो जाये संतुलन

खुश हो मन l 

 

2.

(प्रतियोगिता के बाहर)

 

रोजी-रोटी के लिये, खतरनाक है राह  

फिर भी खतरों की करें, जरा नहीं परवाह l

 

ये पेशा है मजबूरी, मिले और ना काम   

जीवन-मृत्यु का सदा, छिड़ा रहे संग्राम l  

 

तान के सीना बैठे, आँधी सी रफ़्तार

ऊपर नीचे को लगें, चक्कर बारम्बार l

 

चेहरे पर ना शिकन, लगते हैं निर्भीक   

अपना सारा संतुलन, ये रखते हैं ठीक l

 

मोटरसाइकिल पर हैं, बैठे बहुत संभाल  

जान हथेली पर लिये, करते बड़ा कमाल l

 

जोखिम रोज उठा रहे, जीवन करें निसार

पर ज्यादा ना मिलती, इनको यहाँ पगार l  

 

पहने नहीं हेलमेट, ना है इनकी ढाल 

बीबी-बच्चों का बुरा, होता होगा हाल l

 

जरा चूक जो हो गयी, ये जानें अंजाम

हैं सबके रक्षक वही, हों रहीम या राम l

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श्री अश्विनी रमेश

1.

खतरों से हमे अब खेलना आ जो गया है

कष्टों को हमें जब झेलना आ जो गया है

 

किस्मत पे हमें अपनी कभी शिकवा न होगा

देखो तो हमें दुश्वारियों को ठेलना आ जो गया है

 

हम ये भी समझते हैं कि कतरा इक महज़ है हम

खतरों के समन्दर पे हमें तैरना आ जो गया है

 

ऐसा भी बशर क्या है हमें अब जो डराये

खेलो मौत से अब खेलना आ जो गया है

 

हम तकदीर को यों रोएं भी क्योँ इस तरह से

किस्मत को हमें यों झेलना आ जो गया है !!

 

 

2.

जिन्दगी सबकी अजब सा यार कैसा मेल है

जिन्दगी तो फ़िर कहीं ये मौत जैसा खेल है

 

करतबों को कर दिखाओ खौफ के साये तले

गर न तुम ये कर सको तो ये तमाशा फेल है

 

जिन्दगी ये देख कैसे यूँ तमाशा बन गयी

ये तमाशा है कि गोया जिस्म की ये सेल है

 

वो दरिन्दे कौन हैं जो यूँ तरस खाते नहीं

यूँ गरीबों की गरीबी को समझते खेल है

 

आज हमने फैसला कर ही लिया है यूँ मगर

इन गरीबों से हमारा तो रहेगा मेल है     !!

_____________________________________

 

श्री सौरभ पाण्डेय

(प्रतियोगिता से अलग)

एक जीवन ऐसा भी

दुस्साहसों के जोर से माहौल मैंने रच दिया
चकित हुई निगाह से  
तुम हठात् खड़े रहे ........ .

मैं झूम-झूम फहरा रहा

अंदाज़ हाव-भाव का

बरस गयीं कि एक तार  ’अद्भुत’, ’ग़ज़ब’ की बदलियाँ ! ...
तुम मुग्ध थे
विभोर थे
तुम ’भक्क’ थे, कठोर थे
कि, उस अजीब दौर में बेहिसाब शोर थे
हरेक आँख में चमक, हरेक बात में खनक
अज़ीब उस माहौल में बेसुध से भौंचक्क थे 
आँख-आँख थी फटी
बस कौतुहल था बह रहा
तो,  तालियाँ पे तालियाँ पे तालियाँ बजती रहीं  .... ..

वेग-वेग-वेग में
द्रुत-वेग और प्रवेग में
कभी कहाँ ये सोचता
कि ज़िन्दग़ी है क्या भला
या, ज़िन्दग़ी की छोर पर

वो मौत भी है क्या बला... !!

जो हाथ में लगाम है
मशीन की कमान है
संतुलन और ध्यान की मिसाल, दास्तान है
न द्वंद्व है
न चाह है
न दर्द है
न आह है
कर्म के उद्वेग में शून्य की उठान है
नहीं कहीं है चाहना, नहीं अभी है कामना 
बस होश, जोश की बिना पे ताव है...   बस आन है !

कि, देर शाम
मैं लसर
हाशिये पे जो गिरा
शोर और चीत्कार की धुँध से अलग हुआ
वो एक है जो मौन-सी  
मन के धुएँ के पार से...  नम आस की उभार सी... 
ग़ुरबत की गोद में पड़ी
बेबसी की मूर्त रूप...  सहम-सहम के बोलती -
"पापा जल्दी...   ना, पापा जरूर आ जाना... ."
_________________________________________________

श्री सतीश मापतपुरी

मौत और ज़िन्दगी

(प्रतियोगिता से अलग )

 

मौत है दुर्बल बहुत, बस जीतती है एक बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

सच कहें तो पेट ही, इंसान का भगवान है.

पेट ही दौलत- ख़ुशी है, पेट ही ईमान है.

 

जिसको भरने के लिए, इंसान सोता-जागता.

कर्म की गठरी लिए, कोई दौड़ता- कोई भागता.

 

मौत के कुँए को इन्सां, लांघता है बार - बार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

हौसला और जोश ही, पूंजी है बस इन्सान की.

हिम्मते और होश ही, कुंजी है हर सोपान की.

 

बाजुओं के जोर से, किस्मत बदल जाती यहाँ.

डर गया जो खेल में, बाज़ी पलट जाती यहाँ.

 

हिम्मते मरदा हो तो, झुकती ख़ुदाई बार - बार.
मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

 

आते हैं सब बाँध मुट्ठी,जाते हैं सब खाली हाथ.

हाथों से लाखों कमाते, फिर भी खाली रहता हाथ.

 

मौत के कुँए से भी, विकराल है जीवन का कूप.

रात - दिन तन को जलाती, भूख की तीखी ये धूप.

 

मौत भी जाती सहम, जब ज़िन्दगी करती है वार.

मात देती मौत को नित, ज़िन्दगी कई एक बार.

______________________________________________ 

श्री  वीरेंद्र तिवारी

 

व्यर्थ दुनिया के दिलासे जिन्दगी है एक जुआं
एक दिन जल जायेंगें सपने सभी होकर धुआं
पाँव भर चलते रहें हर साँस की रफ़्तार पर
बंदगी हर खेल चाहे मौत का ही हो कुआँ||

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श्री  शेष धर तिवारी

जीना है तो मरना सीखो 

अंगारों पर चलना सीखो 

 

खुद को साबित करना है तो 

सोने सा तुम तपना सीखो 

 

औरों की खुशियों की खातिर 

बनकर मोम पिघलना सीखो 

 

अंदर अंदर आंसू पीकर 

बाहर बाहर हँसना सीखो 

 

मौत खड़ी है घात लगाए 

बचकर इससे चलना सीखो 

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सभी रचनाओं को एक साथ संकलित कर आपने ओबीओ के आयोजनों के पश्चात् अपेक्षित अवश्यंभावी कार्य को सफलतापूर्वक किया है. आपकी श्रमसाध्य संलग्नता को मेरा हार्दिक अभिनन्दन.  वे सदस्य और पाठक जो इन रचनाओं को आयोजनों के दौरान पढ़ने से रह गये थे, उनके लिये यह एक उचित संग्रह है.   सादर हार्दिक बधाई ... .

 

 

आदरणीय सौरभ जी,

आपकी  सराहना पाकर यह श्रम सार्थक हुआ ......इस कार्य को सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार मित्रवर ! जय ओ बी ओ ! :-)))  

सादर..

 

बहुत ख़ूबसूरती से सभी रचनाओं को एक जगह संचित कर दिया गया है...देखकर बहुत खुशी हुई.  इस कार्य के लिये धन्यबाद व बधाई !

आदरणीया शन्नो जी ! आपका हार्दिक आभार मित्रवर ! जय ओ बी ओ ! :-)))  

sabhi ki rachanaye bahut hi sundar likhi hai anand aayaa rachana padh ke..

Dhanyavaad...

shambhu nath

भाई शम्भूनाथ जी ! आप का स्वागत है ! उपरोक्त आयोजन में सम्मिलित इन सभी रचनाओं को सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार ! :-)

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सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर updated their profile
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ पांडेय सर, बहुत दिनों बाद छंद का प्रयास किया है। आपको यह प्रयास पसंद आया, जानकर खुशी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त चित्र पर बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करते बहुत बढ़िया छंद हुए हैं। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 155 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय दयाराम मथानी जी छंदों पर उपस्तिथि और सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार "
Sunday

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