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ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्यिक-परिचर्चा माह नवंबर 2020 - एक प्रतिवेदन  :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

 ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 22 नवंबर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध कवयित्री सुश्री संध्या सिंह ने की I संचालन का दायित्व मनोज शुक्ल ‘मनुज‘ ने निबाहा I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र में समर्थ कवयित्री सुश्री आभा खरे की निम्नांकित कविता पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार रखे I

     मनकही  

बालों से झाँकती 

चाँदी सी उम्र 

कहती है मुझसे 

कि  

भाग रही ज़िन्दगी की 

रफ़्तार बड़ी तेज है 

सहेज सको तो सहेज लो 

यहाँ-वहाँ बिखरे उन सभी 

ख़ूबसूरत लम्हों को 

जिनमें ज़िन्दगी

वास्तव में बसर करती है ..!

 

लेकिन ! 

जब-तब 

मेरी आँखों में चमक बन कर 

मचल उठती है, एक मासूम सी लड़की 

जिसकी निश्छल मुस्कान और आँखों में 

बच्ची बने रहने का आग्रह देख 

मैं सोचने लगती हूँ कि 

उससे क्या कहूँ ?

कैसे उसे उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ना सिखाऊँ ....?

 

वो लड़की ! 

जो सरपट उतरती-चढ़ती है          

घर की सीढ़ियों पर 

माँ पीछे से आवाज़ देती रह जाती 

रे छोरी  ! 

"आहिस्ता से सीढ़ियाँ उतरा कर 

हाथ-पाँव टूट गए और जो कोई ऐब आ गया तो 

ब्याह भी न होगा.....!”

 

वो लड़की ! 

जो सहेलियों के संग 

साइकिल से लगाती है रेस 

और हमेशा की तरह 

हवा से बातें करती हुई 

सबको पीछे छोड़ 

जीत जाती है रेस ...!

 

वो लड़की ! 

जो बड़े आराम से चढ़ जाती है आम के पेड़ पर 

तोड़ लाती है ढेर सारे पके मीठे आम 

और माली काका को देकर चकमा 

पल भर में हो जाती ओझल ...!

 

वो लड़की ! 

नहीं तय करना चाहती 

उम्र का लम्बा सफ़र 

वो टिकी रहना चाहती है 

लड़कपन के उसी पायदान पर 

जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है 

जहाँ बेफ़िक्री है 

छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ हैं  

जहाँ रात सुकून का नर्म बिछौना है 

तो दिन एक नए सपने को आकार देने का जरिया भी ...!

 

लेकिन वो लड़की ! 

लगातार आती उम्र की दस्तक को 

अनसुना कर नहीं पाती .......!!!!!!!!!!!!!

उपर्युक्त कविता पर विचार रखने हेतु संचालक महोदय ने श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ को बुलाया I आहत ने कहा कि आभा जी की कविता उनके मन की बात है लेकिन अपनी बात कहते हुए उन्होंने सबके मन की बात भी बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त कर दी है | यह सच है कि मन बार-बार अपने बचपन की ओर कुलाँचे भरता है, लेकिन किसी मजबूत डोर से बँधा हुआ वह वहाँ तक पहुँच न पाने के लिए मानो विवश है I मन शायद पहले जैसी स्वच्छंदता, उन्मुक्तता, उत्साह, उमंग और निश्चिंतता फिर से पाना चाहता है I लेकिन उम्र की निरंतर बढ़ती हुई रफ़्तार उसे सिर्फ यादों में सिमटा देती है और मन उदास हो जाता है |

वो लड़की !

नहीं तय करना चाहती

उम्र का लम्बा सफ़र

वो टिकी रहना चाहती है

लड़कपन के उसी पायदान पर

जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है

जहाँ बेफ़िक्री है

छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ हैं  

जहाँ रात सुकून का नर्म बिछौना है

तो दिन एक नए सपने को आकार देने का जरिया भी ...!

 

लेकिन वो लड़की !

लगातार आती  उम्र की दस्तक को

अनसुना कर नहीं पाती .......!!!!!!!!!!!!!

काश, कि मन का चाहा संभव हो पाता ! यहाँ बात सिर्फ उस लड़की की नहीं है, हर उस इंसान की है जो अपने बचपन की दहलीज़ को लाँघ कर इतना आगे निकल आया है कि अब वह सिर्फ बचपन के मानस चित्र ही देख सकता है I

अगले आमन्त्रण पर डॉ. अर्चना प्रकाश ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि कवयित्री ने बाल-जीवन को बहुत सहजता से उकेरा है । उम्र और समय तीव्रता से आगे बढ़ते हैं, पर मानव मन उन छूटे हुए खूबसूरत पलों की यादें नहीं भूलता i अपितु वह उसे पुनः जीना चाहता है । बचपन की निश्छलता, चंचलता,  मोहकता एवं शरारतें कवयित्री के मन पर दस्तक देती हैं, पर  वह उम्र की चाँदी जैसी सफेदी को अनदेखा नहीं करती । अतीत की छोटी-छोटी खुशियाँ वर्तमान में किस प्रकार ऊर्जा का संचार करती हैं, यह कविता उसका अन्यतम प्रमाण है I

कवयित्री नमिता सुंदर का कहना था कि आभा की ‘मनकही‘ कविता के संग कदम दर कदम चलना वैसा ही है जैसे किसी अपनी बेहद मनचीती सखी के गलबहियाँ डाल अल्हड़ सुख में डूबना और उतराना । कल्पना कीजिये कि आप सड़क किनारे किसी आइसक्रीम के ठेले के पास खड़े हैं और ठेले वाले ने आइसक्रीम आपके हाथ में पकड़ाई है एकदम् चिल्ड आरेंज बार, क्या होता है फिर? हर चुस्की सँग भीतर तक उतरता बूँद-बूँद मीठा रस, रंगीन होती जीभ पर तीखी ठंडक का चटपटा एहसास और आँखों से छलकता नटखट आनंद... कुल जमा जो अनुभूतियाँ होती हैं न उस समय, बस वही सब हमने आभा जी की मनकही के एक-एक बिम्ब से गुजरते हुए अनुभव की । उम्र तो अपनी रफ्तार चलेगी ही पर इस सीढ़ियाँ फलाँगती, हवा से बातें करती लड़की की साँसों को मेरी तरफ से बसंत बयार।

डॉ. शरदिंदु के अनुसार आभा जी की रचना "मनकही" बहुत कुछ कह जाती है । बचपन की उस 'लड़की' के साये में नारी मन के उद्गार अपना खूबसूरत कैनवास बनाते हुए उम्र के कगार पर आकर रंग में दो बूँद आँसू लुढ़का देते हैं चुपचाप.... भाव सजीव हो उठते हैं नि:शब्द मुखर होकर I

ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह का कहना था कि उन्होंने रचना कई बार पढ़ कर स्वयं को उस मन:स्थिति में लाने का प्रयास किया I यह रचना एक मानसिक अंतर्द्वद्व की अभिव्यक्ति है I वर्तमान और अतीत के बीच की खींच-तान है I  इसमें जो वर्णित है वह मन को उद्वेलित करता है I कवयित्री का मन आज भी उसी अतीत के क्षणों में विचरण कर आनंद का अनुभव करता है I किन्तु आज का मानसिक वातावरण उसमें बाधक है I इस ऊहा-पोह का सफल चित्रण इस रचना में है I आभा जी का चिंतन तथा उनकी भाषा दोनों ही सदैव परिष्कृत रहते हैं I मैं उन्हें पढ़ता-सुनता रहा हूँ I उनकी लेखनी के सामर्थ्य से परिचित हूँ I इस दृष्टि से मुझे लगता है उनका रचना-कौशल इस कविता के स्तर से कहीं अधिक ऊँचा है I  

श्री मृगांक श्रीवास्तव के अनुसार विविधताओं से भरी जिंदगी में कुछ चिंतायें, कुछ उलझनें होती हैं । इन्हीं के बीच हम बीते उम्र की कुछ हसीन यादें सहेजते हैं । आभा जी शायद मासूम लड़की के माध्यम से अपने ही बचपन को याद कर रही हैं।  साथ में माँ  की सतर्क देखरेख की झलक भी है । पर सच्चाई यह भी है कि  न उम्र ठहर सकती है न पीछे लौटा जा सकता है । इसलिए जो अच्छे पल बीत गये उन्हें सहेजने का संदेश है इसमें । सुंदर भाव, जीवन के स्वर्णिम पलों के लिए अकुलाहट और छटपटाहट।

कवयित्री कौशांबरी के अनुसार लेखिका के अंतर्मन की बालसुलभ चपलता की पुलक लिए नन्हीं बालिका बार-बार शैशव में लौटना चाहती है और विडंबना यह है कि जीवन की परिपक्वता और गांभीर्य को वह कैसे आत्मसात करे I उसका दिशा-निर्देश कौन करे ? बालिका जीवन के संधिकाल में अपने अंदर होते बदलाव की आहट को कैसे अनसुना कर दे i इसी भाव को बार-बार उकेरती हुई भावपूर्ण अभिव्यक्ति है यह कविता I

कवयित्री कुंती मुकर्जी के अनुसार आभा जी की रचना एक बालिका के युवा होने तक का पूरा सफ़र है और यह हर नारी की मनकही हो सकती है I

डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव के अनुसार कवयित्री आभा खरे की कविता ‘मनकही’ पाठक को विराम नहीं देती I पढ़ने वाला कदम –दर-कदम जैसे किसी भाव-सरिता में धँसता जाता है I हम सब अपने बचपन से गुजरे हैं I हमने जीवन भर बचपन के तमाम रूप-अपरूप देखे हैं और उनके भोलेपन को आत्मसात किया है I हमने अपने बच्चों और प्रायशः उनके बच्चों के बचपन को भी जिया है I आभा जी ने भी जिया I जिया ही नहीं शब्द भी दिये, जो अधिकांशतः अभिधा में है I सर्वत्र प्रसाद गुण दिखता है I कोई बनावट नहीं, कोई सजावट नहीं, कोई छद्म नहीं कोई आयास योजना नहीं I शिल्पगत सौष्ठव और अलंकार अनायास आते हैं I कविता दिल में उतरती जाती है I

यह कविता एक कवयित्री के आत्मचिंतन से शुरू होती है, जिसे पता है कि जीवन तेजी से भाग रहा है, उसमें से कुछ लमहे सहेजने हैं,  क्योंकि उन्हीं लमहों में सच्चा जीवन हैI  

“बालों से झांकती

चाँदी सी उम्र

कहती है मुझसे

कि 

भाग रही ज़िन्दगी की

रफ़्तार बड़ी तेज है

सहेज सको तो सहेज लो

यहाँ-वहाँ बिखरे उन सभी

ख़ूबसूरत लमहों को

जिनमें ज़िन्दगी

वास्तव में बसर करती है ..!

इस सोच के साथ कल्पना का कैमरा अपना कोण बदलता है और कवयित्री का ध्यान उस मासूम लड़की  की ओर जाता है जो जब-तब उसके ख्यालों में आती रहती है I वह मासूम लड़की  वास्तविक जीवन की दुर्वह विद्रूपता से अनजान है I उसे जीवन के सोपान पर कदम रखना कौन सिखाये,  कैसे सिखाये, यह आभा जी की समस्या है I हमने अपनी बड़ी-बूढ़ियों को अक्सर लड़कियों को टोकते देखा है,  जब वे प्रायशः इस तरह आगाह करती हैं -

रे छोरी !

आहिस्ता से सीढ़ियाँ उतरा कर

हाथ-पाँव टूट गए और जो कोई ऐब आ गया तो

ब्याह भी न होगा ".....!

लड़कियाँ इन झिड़कियों की कब परवाह करती हैं I फिर आभा जी की कल्पना की यह मासूम लड़की  मामूली भी नहीं है I वह अपनी सभी सहेलियों को हराकर साईकिल की रेस जीतती है I वह माली काका को चकमा देकर आम के पेड़ पर चढ़ जाती है और ढेर सारे पके आम तोड़ लाती है I उस लड़की  का अवचेतन कहता है, यही उछलना,  कूदना और खिलंदड़ापन ही जीवन है I वह लड़कपन के उसी पायदान पर टिकी रहना चाहती है,  जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है -

“वो लड़की !

नहीं तय करना चाहती

उम्र का लम्बा सफ़र

वो टिकी रहना चाहती है

लड़कपन के उसी पायदान पर

जहाँ खुशियों और सौन्दर्य से भरा जीवन साँस लेता है

जहाँ बेफ़िक्री है

छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी खुशियाँ हैं I“

पर ऐसा कब हो पाता है I गतिशील समय परिवर्तन का कारक है I जेआफ्रे चासर की प्रसिद्ध उक्ति  है- ‘Time and tide wait for no man.’  आभा जी इस सत्य को बड़ी शालीनता से कम शब्दों में बयाँ करती हैं, परन्तु वह हमारी अंतश्चेतना को झिंझोड़ कर रख देता है I

“लेकिन वो लड़की !

लगातार आती उम्र की दस्तक को

अनसुना कर नहीं पाती .......!!!”  

इस कविता में अतीत के याद की कसक (nostalgia )तो है ही साथ ही कवयित्री ने बाल-जीवन के जो चित्र उठाये हैं, वे बड़े ही स्वाभाविक और चुटीले हैं I बालों से झाँकती चाँदी जैसी उम्र, लड़कपन के उसी पायदान पर,  जीवन साँस लेता है, सुकून का नर्म बिछौना, उम्र की दस्तक जैसे अलंकारिक प्रयोग से शिल्प-सौष्ठव भी निखर कर सामने आया है I इस ‘मनकही’ कविता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात संभवतः वह सार्वकालिक संदेश है, जो आभा जी ने कविता की अंतिम तीन पंक्तियों में निबद्ध किया है I

अजय श्रीवास्तव 'विकल' के अनुसार आभा जी की "मनकही" यथार्थवाद पर लिखी गयी कविता है l जीवन में हमारा मन स्वतंत्र और अनियंत्रित होता है,  जहाँ मन प्रसन्न भावों को वरीयता देता है l काश ऐसा होता कि बाल जीवन नियति के कशाघातों से मुक्त होता l बचपन सुखमय होता है I यही जीवन का वह समय है जब हमें प्रकृति की मनोहारी कृति को उस अवस्था में उतारने की इच्छा होती है कि वह कभी समाप्त न हो, ऐसी अपेक्षा होती है l अनुभव हमें भविष्य की भयानकता के प्रति सावधान करता है, किन्तु अल्हड़ मन कहाँ मानता है, वह तो उस जीवंत सुख को लूट लेना चाहता है l "बालों से झाँकती चाँदी सी उम्र" वाक्यांश में उपमा और रूपक का अनुपम समागम है l चाँदी परिपक्व आयु का प्रतीक है I "छोटी सी मासूम लड़की" में विरोधी उपमा के माध्यम से अनुभव और अल्हड़ता को समन्वित करने का सुन्दर प्रयास हुआ है I यहाँ कवयित्री ने जीवन के ठहराव का संकेत दिया है, किन्तु अंत में यथार्थवाद को रूपायित करते हुए "दस्तक को अनसुना कर नहीं पाती" और इस सार्वकालिक सत्य को स्वीकार करती है I

डॉ अंजना मुखोपाध्याय के अनुसार ‘मनकही’ कविता में परिपक्व उम्र से आस्नात कवयित्री लड़कपन के बिंदास दिनों में झाँकती है । शैशव के अल्हड़पन की यादें, माँ की सतर्क सावधानी, सहेलियों के बीच साइकिल चलाने की प्रतिस्पर्धा और इन चपलता को

सँजोए हमेशा चलते रहने की जिजीविषा । रचना की ऊहात्मक  पंक्ति - "कैसे उसे उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ना सिखाऊं " वास्तविकता के प्रति कवयित्री की जागरूकता को इंगित करती है । जीवन की वस्तुस्थिति से गुजरते हुए प्रौढ़ता की ड्योढ़ी तक पहुँच चुकी कवयित्री की चाहत लड़कपन और बेफिक्री के उसी पायदान पर टिक जाने की है । यह एक स्वाभाविक अतीत प्रेम की कसक (nostalgia) है I

संचालक श्री मनोज शुक्ल ‘मनुज’ जी ने आभा जी की कविता पर अपने विचार एक दोहे के माध्यम से रखे I दोहा इस प्रकार है -

आभा जी की लेखनी सच का है विस्तार I

जैसा देखा लिख दिया ऐसा मनुज विचार

कवयित्री संध्या सिंह के अनुसार कविता के संबोधन को पढ़ते ही हर उम्र की स्त्री के भीतर सोई लड़की उठ कर बैठ जाती है l दरअसल ये कविता एक नॉस्टेल्जिया पैदा करती है ...पाठक शब्द यात्रा के दौरान अपना अतीत का सफर तय करता है l निःसंदेह यह एक सशक्त पृष्ठभूमि पर प्रभावी कविता है  l स्त्री का कोमल मन कहाँ-कहाँ अटका होता है I उन कोमल पलों को उन्होंने अपने शब्द-चयन से बखूबी बुना है I इतना ज़रूर है कि इस कविता की तुलना में आभा जी के पास और अच्छी चौंकाने वाली, बेधने वाली कवितायें भी हैं l वे बहुत सघन, घुमावदार , सांकेतिक कविताओं के लिए जानी जाती हैं,  जिसमें पाठक उतार-चढ़ाव , सुरंग या अँधेरा पाकर अपने मन और मस्तिष्क दोनों को संतुष्ट करता है l  इस कविता  में उनका स्तर अपने वास्तविक रूप में रूपायित नहीं हो पाया है I ऐसा मेरा विचार है I

                                                             लेखकीय वक्तव्य   

आप सब की सारगर्भित प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हूँ । ऐसी प्रतिक्रियायें निश्चित ही लेखन को और अधिक परिष्कृत करने में सहायक होंगी। ऐसा मेरा विश्वास है I आ. भूपेन्द्र जी और संध्या दी ने यह कहकर मेरा मान ही बढ़ाया है कि यह कविता मेरे स्तर को पूरी तरह रूपायित नहीं करती i यह मेरे लिए सबसे बड़ा पारितोषिक है I विशेषकर तब जब आप सबका भरपूर आशीर्वाद इस कविता को भी मिला I अपने लेखन के विषय में इतना ही कहना चाहूँगी कि यह मन के भावों को पन्नो पर उकेरने से ही शुरू हुआ।  कविता  सच पूछिए तो ‘मनकही’ मेरी माँ की बात है  उनका अपना अनुभव है I  पाठक जब ऐसी अभिव्यक्ति से जुड़ता है तो मैं अपने लेखन को सार्थक समझने लगती हूँ । भाषा को चाहकर भी सरल होने से मैं नहीं रोक पाती । दोहा भी लिखूँगी तो बोलचाल की भाषा में ही लिख पाऊँगी। मुझे लगता है कि कविता हो या कोई साधारण सी बात हो , दूसरे के दिल तक पहुँचनी चाहिए i इसके लिए यदि शब्दकोश सामने आ गया तो कविता या बात अपना मर्म , अपना असर खो बैठेगी । हो सकता है मेरी यह धारणा पूर्ण सत्य न हो , पर मेरा ऐसा विश्वास है I आप सभी का आभार I

 (मौलिक /अप्रकाशित )

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