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'भ्रूण-हत्या' - (लघुकथा)

डियर डायरी,
आज दिल बहुत अधिक व्यथित है। क्यों न आज अपनी भड़ास को यहीं शाब्दिक कर दूं! माता-पिता, पालक-परिवारजन, रिश्तेदार, शिक्षक, विद्यालय परिवार ही नहीं, ... नियोक्ता, सहकर्मी, अफ़सर, राजनेता और मंत्रियों से लेकर देशभक्त कहलाने का दंभ भरते औपचारिकतायें करते तथाकथित लगभग सभी नागरिक-सेवक मुझे कहीं न कहीं, कभी न कभी अपराधी, हत्यारे से सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। आसमान छूने की चाहत रखने वालों के 'भ्रूण' रूपी सपनों, कौशल-प्रतिभाओं, स्ट्रेटजीज़, रणनीतियों को समझने-परखने के बजाय, सार्थक सहारा-मार्गदर्शक बनने के बजाय अपने ही मनमाफ़िक़ लक्ष्य साधने बावत उनका मानसिक, शारीरिक, भौतिक या आर्थिक शोषण करते हुए उस भ्रूण की हत्या ही कर डालते हैं देसी धार्मिक, सामाजिक, पारंपरिक या अत्याधुनिक फैशन रूपी 'नुस्ख़ों' या फिर ऐसी ही किसी 'शल्यचिकित्सा' से!


हो सकता है प्रियवर तुम भी उपरोक्त विचारों से पूर्ण असहमत या आंशिक सहमत ही होकर तुम भी मुझे नकारात्मकताधारी, हीनभावनायुक्त या कुण्ठित ही ठहराओ अन्य लोगों की तरह! लेकिन ख़ुदा क़सम, मैंने अपने बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था अधेड़ावस्था से गुजरते हुए वर्तमान की अपनी वृद्धावस्था में भी ऐसी 'भ्रूण-हत्यायें' बहुत नज़दीक़ से देखीं हैं।

जिनके आसमां में उड़ने के मुख्य 'सपने', बहुत से त्याग और संघर्ष के बाद पूरे साकार हो भी जाते हैं, तो उनके दिल में जागते अन्य ख़ास पारिवारिक, सामाजिक और देशभक्ति के 'जज़्बे' 'भ्रूणावस्था' में ही 'क़त्ल' होते मैंने देखे हैं 'स्वार्थ', 'स्टेटस' और 'धनलोलुपता' के घातक औजारों से ... बेहद भावुक और संवेदनशील सलाहकार और मनोचिकित्सक के रूप में, लेखक और शिक्षक के रूप में!

यह कैसी तरक़्क़ी है? यह कैसा वैश्वीकरण है? यह कैसी वैज्ञानिक और तकनीकी तरक़्क़ी है जहां वनस्पति, जीव-जन्तुओं, मानव और मानवता जीवन की 'आरंभिक अवस्था' में ही 'येन-केन-प्रकारेण' 'शहीद' कर दी जाती है प्रयोगों, अनुसंधानों, दवाओं, मानव-जीव-अंग-तस्करी आदि के नाम या महिला-पुरुष समानता के नाम, महिला सशक्तीकरण के नाम! ओह, बहुत दुख हो रहा है 'तरक़्क़ी के केक' में मिश्रित 'अंडों और घटक-अवयवों' की 'शहादतों' को महसूस करते हुए! यदि यही प्रकृति और तरक़्क़ी का निर्धारित चक्र है, तो मैं भी किंकर्तव्यविमूढ़ ही हूं, बस! है न!


शेष कल सांझा करूंगी! शब्बा ख़ैर!


तुम्हारी ही,
मदर क्रिस्टीना
(चर्च होस्टल, केरल)


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 7, 2018 at 8:01pm

अनुमोदन, प्रोत्साहित करती टिपप्णियों के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया बबीता गुप्ता साहिबा,  आदरणीय समर कबीर साहिब और आदरणीय विजय निकोरे साहिब।

Comment by babitagupta on September 5, 2018 at 6:09pm

आधुनिकता की दौड़ में तकनीकी का दुरूपयोग करके किस दिशा में जा रहा इन्सान।बेहरीन रचना,हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय शेख सरजी।

Comment by vijay nikore on September 4, 2018 at 2:44pm

आपकी लघुकथा मुझको पढने को पास खींच लाती है। बधाई, आदरणीय शेख़ उस्मानी जी।

Comment by Samar kabeer on September 3, 2018 at 12:01pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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